बिहार में कांग्रेस: ‘पिछलग्गू’ की छवि से जूझती सियासत

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kmSudha

बिहार

तीसरा पक्ष ब्यूरो : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो कभी बिहार की सियासत में एकछत्र राज करता था लेकिन आज गठबंधन की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता तलाश ररहा है. हाल के वर्षों में, विशेष रूप से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ गठबंधन में, कांग्रेस पर ‘पिछलग्गू’ बनने का आरोप लग रहा है.क्या वाकई कांग्रेस बिहार में अपनी स्वतंत्र पहचान खो चूका है, या यह गठबंधन की मजबूरी है? आइए, हाल के समाचारों और विश्लेषण के आधार पर इसकी पड़ताल करते हैं.

कांग्रेस की ऐतिहासिक स्थिति

1946 से 1990 तक, कांग्रेस बिहार की सत्ता पर काबिज रहा है. श्रीकृष्ण सिन्हा जैसे दिग्गज नेताओं ने लंबे समय तक राज्य को नेतृत्व प्रदान किये.हालांकि, 1990 के बाद, लालू प्रसाद यादव की अगुवाई में आरजेडी और नीतीश कुमार की जेडीयू ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया. 2010 के विधानसभा चुनाव में, जब कांग्रेस ने अकेले 243 सीटों पर चुनाव लड़ा, तो उसे मात्र 4 सीटें मिलीं, और 216 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो था.

गठबंधन की मजबूरी या रणनीति?

हाल के वर्षों में, कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा रही है, जिसमें आरजेडी प्रमुख सहयोगी है. 2020 के विधानसभा चुनाव में, कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन केवल 19 सीटें ही जितने में सफल रहा.इस प्रदर्शन ने कांग्रेस की कमजोर स्थिति को उजागर किया. विश्लेषकों का मानना है कि आरजेडी के मुस्लिम-यादव (एमवाई) वोट बैंक के बिना कांग्रेस का जनाधार सीमित है.

2025 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों में, कांग्रेस ने ‘नौकरी दो, पलायन रोको’ यात्रा शुरू किया, जिसका नेतृत्व कन्हैया कुमार और कृष्णा अल्लावरु कर रहे हैं। यह यात्रा बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दों को उठाने का प्रयास है, लेकिन कई लोग इसे आरजेडी के एजेंडे को मजबूत करने की कोशिश के रूप में देखते हैं. बीजेपी नेता रामकृपाल यादव ने तो यहां तक कहा कि “कांग्रेस के पास न नेता है, न वोट.”

‘पिछलग्गू’ की छवि

कांग्रेस पर ‘पिछलग्गू’ होने का आरोप कोई नया नहीं है. 2022 में, पटना के सदाकत आश्रम में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने अपने ही नेतृत्व के खिलाफ प्रदर्शन किया, जब उन्हें गठबंधन में कम मंत्री पद मिले.यह घटना कांग्रेस की आंतरिक कमजोरी और गठबंधन में उसकी कमजोर सौदेबाजी की स्थिति को दर्शाती भी है.

हाल ही में, राहुल गांधी ने पटना में स्वीकार किया कि “बिहार में हमने जो काम पहले करने चाहिए थे, वो नहीं किए.” यह बयान कांग्रेस की रणनीतिक चूक को भी दर्शाता है. इसके अलावा, महागठबंधन में सीट बंटवारे और सीएम चेहरे को लेकर तनाव भी उजागर हुआ है. कांग्रेस ने तेजस्वी यादव को सीएम चेहरा घोषित करने से इनकार कर दिया, जिससे गठबंधन में दरार की खबरें सामने आईं.

सोशल मीडिया पर चर्चा

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर भी कांग्रेस की स्थिति को लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिला है. एक यूजर ने लिखा, “कांग्रेस का जनाधार बिहार में खत्म हो चुका है. खड़गे साहब आए और चले गए, लेकिन कोई प्रभाव नहीं पड़ा.” एक अन्य यूजर ने कहा, कांग्रेस आरजेडी के बिना पांच सीट भी नहीं जीत सकती” ये पोस्ट बिहार में कांग्रेस की कमजोर स्थिति को दर्शाते हैं, हालांकि ये व्यक्तिगत राय हैं और इन्हें तथ्य के रूप में नहीं लिया जा सकता.

क्या है कांग्रेस की रणनीति?

कांग्रेस अब दलित, अल्पसंख्यक, और सवर्ण वोटरों को साधने की कोशिश कर रही है, जैसा कि नए प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार ने कहा. पार्टी ने कन्हैया कुमार जैसे युवा चेहरों को आगे किया है, लेकिन तेजस्वी यादव के साथ उनकी असहजता गठबंधन की एकता पर सवाल उठाती है.

विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस को अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए संगठनात्मक मजबूती और स्थानीय नेतृत्व की जरूरत है. अन्यथा, ‘पिछलग्गू’ की छवि से बाहर निकलना मुश्किल होगा.

निष्कर्ष

कांग्रेस बिहार में एक कठिन दौर से गुजर रही है. गठबंधन की मजबूरी ने उसे आरजेडी की छाया में ला खड़ा किया है, जिसके कारण ‘पिछलग्गू’ की छवि मजबूत हुई है. हालांकि, ‘नौकरी दो, पलायन रोको’ जैसी पहल और नए नेतृत्व के जरिए कांग्रेस अपनी जमीन तलाशने की कोशिश कर रही है. 2025 का विधानसभा चुनाव यह तय करेगा कि क्या कांग्रेस अपनी खोई हुई साख वापस पा सकती है, या गठबंधन की राजनीति में सहयोगी की भूमिका तक सीमित रह जाएगी.

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