दीपंकर भट्टाचार्य का सवाल – लोकतंत्र की सूची में हेराफेरी क्यों?

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Ajit Kumar

बिहार
दीपंकर भट्टाचार्य का सवाल – लोकतंत्र की सूची में हेराफेरी क्यों?

जितनी सफाई, उतनी गड़बड़ी – क्या छुपा रहा है आयोग?

तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना ,1 जुलाई :दीपंकर भट्टाचार्य (महासचिव, भाकपा–माले) के विचारों पर आधारित एक विश्लेषण :बिहार में चुनाव आयोग द्वारा जारी किया गया ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ का आदेश जितना तकनीकी रूप से साफ़-सुथरा दिखाया जा रहा है, उतना ही यह कदम ज़मीनी स्तर पर अव्यवहारिक, संदेहास्पद और असमानता को बढ़ावा देने वाला प्रतीत हो रहा है.

जहाँ इसे चुनाव आयोग अपनी वार्षिक प्रक्रिया के रूप में प्रचारित कर रहा है, वहीं कुछ बुनियादी सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब अब तक नहीं दिया गया है – और यही चुप्पी इस पूरी कवायद पर गंभीर सवाल खड़े करती है.

22 साल बाद क्यों हुआ ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’?

सबसे पहली बात – ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ को एक सामान्य अद्यतन प्रक्रिया के तौर पर क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है? यह कोई हर साल होने वाली घटना नहीं है.पिछली बार ऐसा पुनरीक्षण वर्ष 2003 में हुआ था, यानी पूरे 22 साल पहले. अगर यह वाकई एक रूटीन प्रक्रिया होती, तो हर साल होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.इस बार इतनी बड़ी कवायद को अचानक, बिना किसी सार्वजनिक बहस या तैयारी के लागू करना कई सवाल खड़े करता है.

क्या हर मतदाता अब अपनी नागरिकता साबित करेगा?

भारतीय संविधान और चुनावी व्यवस्था की बुनियाद यह मानती है कि भारत का हर नागरिक वोट देने का अधिकारी है. आज़ादी के बाद से अब तक किसी मतदाता से उसकी नागरिकता का सबूत नहीं मांगा गया. यदि किसी व्यक्ति पर संदेह हो, तो यह राज्य की ज़िम्मेदारी रही है कि वह जांच करे, न कि हर व्यक्ति को संदिग्ध मान लिया जाए.

अब अचानक हर मतदाता से दस्तावेज़ मांगने की प्रक्रिया – जिनमें से कई दस्तावेज़ लाखों-करोड़ों लोगों के पास नहीं हैं – सीधे तौर पर गरीब, हाशिए पर खड़े समुदायों, आदिवासियों, दलितों और प्रवासी मज़दूरों को निशाना बनाती नज़र आती है.

जन्म पंजीकरण की विफलता की सज़ा जनता को क्यों?

बचपन में जन्म का पंजीकरण न होना, क्या किसी व्यक्ति की गलती है? यह तो सरकार और स्थानीय प्रशासन की ज़िम्मेदारी रही है कि वह सार्वभौमिक जन्म व मृत्यु पंजीकरण सुनिश्चित करे. लेकिन अब, जब दशकों पुराने रिकॉर्ड खोजने की बात आती है, तो आम लोग – ख़ासकर ग्रामीण और वंचित तबके – सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं

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बिना राजनीतिक सहमति के इतनी बड़ी प्रक्रिया?

सबसे गंभीर सवाल यह है कि इतने बड़े कदम से पहले चुनाव आयोग ने किसी भी राजनीतिक दल से चर्चा क्यों नहीं की? किसी लोकतंत्र में यह स्वीकार्य नहीं हो सकता कि ऐसी गहन और संवेदनशील प्रक्रिया को चुपके से लागू कर दिया जाए। जब नोटबंदी जैसे आर्थिक फैसले पर सरकार ने ‘गोपनीयता’ की दलील दी थी, तब भी उसपर सवाल उठे थे. अब क्या चुनाव आयोग भी बिहार के करोड़ों मतदाताओं को अचानक हाशिए पर धकेलने की तैयारी कर रहा है?

असल मुद्दा प्रक्रिया का है, आंकड़ों का नहीं

आयोग यह कहकर तसल्ली देने की कोशिश कर रहा है कि 4.96 करोड़ मतदाताओं को दस्तावेज़ नहीं देने होंगे, क्योंकि वे पहले से ही सूची में दर्ज हैं. लेकिन सवाल ये है कि जो करीब 3 करोड़ लोग बाहर रह गए, वे कौन हैं? क्या वे सभी दस्तावेज़ जुटा पाएंगे? ज़मीनी सच्चाई यह है कि ये आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित किए जा रहे इंसान हैं.

सबसे बड़ा खतरा: लोकतंत्र से बाहर होते लोग

अगर यह प्रक्रिया बिना बदलाव के लागू रही, तो बिहार में लाखों-करोड़ों लोग – ख़ासकर दलित, पिछड़े, ग़रीब और भूमिहीन मज़दूर – अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं. चुनाव आयोग को समझना होगा कि उसका दायित्व सिर्फ सूची तैयार करना नहीं, बल्कि लोकतंत्र में अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित करना है.

समाधान क्या है?

चुनाव आयोग को चाहिए कि वह इस अवैज्ञानिक, अपारदर्शी और भेदभावपूर्ण आदेश को तुरंत वापस ले. मतदाता सूची के जो नियमित अपडेट पिछले दो दशकों से होते आए हैं, उन्हें ही आधार बनाकर आगे बढ़ा जाए. तकनीकी सुधार ज़रूरी हैं, लेकिन उनका उद्देश्य जटिलता नहीं, सहूलियत होना चाहिए.

निष्कर्ष

लोकतंत्र की नींव मतदाता हैं, और अगर वही मतदाता संदिग्ध बना दिए जाएंगे, तो यह पूरे तंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल बन जाएगा। चुनाव आयोग को यह समझना होगा कि विश्वास खो देना, चुनाव हारने से भी बड़ी पराजय है.

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