बिहार में “वोटबंदी” का मुद्दा: पात्रता परीक्षा या मतदाताओं का चयन?
तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना 4 जुलाई :हाल ही में बिहार में एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है, जब राज्य में सरकार बदलने और नई सरकार के चयन का समय आया. भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भटाचार्य ने एक तीव्र आरोप लगाया है कि राज्य सरकार ने मतदाताओं का चयन करने के लिए “बेतुकी पात्रता परीक्षा” शुरू कर दी है. उनका कहना है कि यह कदम असल में वोटबंदी का एक नया रूप है, जिसे बिहार की जनता कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी.
दीपांकर का आरोप है कि सरकार ने इस पात्रता परीक्षा के जरिए उन मतदाताओं को बाहर करने का प्रयास किया है, जो किसी भी तरह से सरकार के समर्थक नहीं माने जा सकते. यह निर्णय न केवल चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करता है, बल्कि लोकतंत्र के मूल अधिकारों को भी चुनौती देता है. बिहार जैसे बड़े और विविधतापूर्ण राज्य में इस तरह के कदम का विरोध होना स्वाभाविक है, जहां हर वर्ग और समुदाय का महत्व है.
दीपंकर भट्टाचार्य ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स हेंडिल पर लिखा कि :
जब बिहार में सरकार बदलने और नई सरकार चुनने का समय आ गया है, तो सर ने बेतुकी पात्रता परीक्षा के ज़रिए मतदाताओं का चयन करना शुरू कर दिया है. यह वोटबंदी है और बिहार इसे बर्दाश्त नहीं करेगा.
क्या है पात्रता परीक्षा का मुद्दा?
इस पात्रता परीक्षा का उद्देश्य क्या है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है. लेकिन जो जानकारी सामने आई है, उसके अनुसार, सरकार ने मतदाता सूची से कुछ विशेष लोगों को बाहर करने के लिए कुछ प्रकार के नए नियम लागू किए हैं.इस प्रक्रिया के बारे में आलोचक यह कह रहे हैं कि यह केवल एक बहाना है, जिसके तहत उन लोगों को बाहर किया जा सकता है, जिनका राजनीतिक दृष्टिकोण सरकार के अनुकूल नहीं है.
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बिहार में चुनाव और लोकतंत्र
बिहार में चुनावी प्रक्रिया हमेशा से बेहद महत्वपूर्ण रही है. यह राज्य भारतीय राजनीति में एक अहम स्थान रखता है, जहां विभिन्न जातीय और सामाजिक समूहों का मजबूत प्रभाव है. यहाँ के लोग लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति बहुत जागरूक हैं, और किसी भी प्रकार की “वोटबंदी” या चुनावी प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप को लेकर सजग रहते हैं.
दीपांकर का कहना है कि इस तरह के फैसले बिहार के लोकतंत्र को कमजोर करने के अलावा कुछ नहीं करेंगे. वे मानते हैं कि इस फैसले का विरोध केवल राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि आम लोग भी इसके खिलाफ अपनी आवाज़ उठाएंगे.
क्या यह “वोटबंदी” का असली रूप है?
दीपांकर का यह आरोप कि सरकार ने वोटबंदी की शुरुआत कर दी है, दरअसल इस विचारधारा को मजबूत करता है कि चुनावी प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप और गलत तरीके से चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित किया जा सकता है. यदि सरकार इस कदम को बढ़ाती है, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाएगा.
हालांकि, सरकार ने इस फैसले को लेकर अपने रुख को स्पष्ट नहीं किया है, लेकिन इससे जुड़ी चिंता बढ़ती जा रही है. क्या यह केवल बिहार तक सीमित रहेगा, या फिर अन्य राज्य भी इस प्रकार के कदम उठाएंगे?
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बिहार की प्रतिक्रिया
बिहार की जनता हमेशा से अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए जागरूक रही है. अगर इस तरह की “वोटबंदी” की प्रक्रिया लागू होती है, तो यह देखना होगा कि इसका विरोध किस स्तर तक होता है. क्या बिहार का मतदाता इस असंवैधानिक कदम को स्वीकार करेगा, या वे इसे पूरी ताकत से चुनौती देंगे?
फिलहाल, बिहार की राजनीति में यह एक नया मोड़ है, जो आने वाले चुनावों में बड़ा असर डाल सकता है.हालांकि, दीपांकर और अन्य विपक्षी नेता इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर हमला मानते हैं, और यह समय बताएगा कि इस मुद्दे पर बिहार की जनता क्या फैसला करती है.
निष्कर्ष
बिहार में लोकतंत्र के प्रति विश्वास और मतदाता के अधिकारों की रक्षा हमेशा से महत्वपूर्ण रही है. दीपांकर का यह आरोप अगर सही साबित होता है, तो यह राज्य में एक बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा कर सकता है. अब यह देखने वाली बात होगी कि बिहार की जनता और अन्य राजनीतिक दल इस मुद्दे पर किस दिशा में कदम उठाते हैं.

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