राज और उद्धव ठाकरे एक मंच पर! क्या महाराष्ट्र की सियासत में आ गया है नया मोड़?
तीसरा पक्ष डेस्क,मुंबई, 5 जुलाई 2025: महाराष्ट्र की राजनीति में उस दृश्य की वापसी हुई है, जिसकी कल्पना तक हाल तक असंभव मानी जाती थी — उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, दो चचेरे भाई, दशकों की दूरी के बाद अब एक मंच पर. यह मेल मुलाक़ात क्या राजनीतिक घर वापसी है या फिर सियासी मजबूरी की उपज? इस सवाल ने राज्य की राजनीति में नई बहस छेड़ दी है.
2006 से 2025: दूरी से एकता तक
2006 में शिवसेना में उत्तराधिकार की लड़ाई के बाद राज ठाकरे ने पार्टी से नाता तोड़ कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) बनाई. उस दिन से आज तक दोनों के रास्ते सियासी तौर पर बिल्कुल जुदा रहे.जहां उद्धव ठाकरे ने शिवसेना को भाजपा के साथ जोड़ते हुए सत्ता तक पहुंचाया, वहीं राज ठाकरे ने मराठी अस्मिता के मुद्दों को उठाया, लेकिन जनाधार सीमित रहा.
अब, लगभग दो दशक बाद, इन दोनों नेताओं की राजनीतिक राहें फिर से मिल रही हैं.
साझा मंच, साझा चिंता

4 जुलाई 2025 को दादर के शिवाजी पार्क में हुई साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में ठाकरे बंधुओं ने मराठी स्वाभिमान और क्षेत्रीय हितों की रक्षा के नाम पर एक साथ आने का ऐलान किया.
उद्धव ठाकरे ने कहा:
“हम भले अलग चले, लेकिन हमारी जड़ें एक हैं – शिवसेना की विरासत, बाला साहेब की सोच और मराठी जन की आत्मा.”
राज ठाकरे बोले:
“आज मराठी जनता का सम्मान खतरे में है. हमें अपनी अस्मिता और हक़ की लड़ाई एकजुट होकर लड़नी होगी.”
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राजनीतिक विश्लेषण: यह मेल क्यों?
सांकेतिक नहीं, रणनीतिक एकता
विशेषज्ञों का मानना है कि यह मेल भावनाओं से ज़्यादा राजनीतिक ज़रूरत है. शिवसेना (उद्धव गुट) को भाजपा-शिंदे गठबंधन ने कमजोर किया है, वहीं मनसे का जनाधार लगातार सिकुड़ा है.
लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तैयारी
2025 के अंत तक महारष्ट्र में BMC और स्थानीय निकाय चुनाव प्रस्तावित हैं. ऐसे में यह गठबंधन मराठी वोटों का पुनर्गठन कर सकता है और भाजपा-शिंदे-एनसीपी (अजित गुट) को सीधी चुनौती देने का मंच तैयार कर सकता है.
बाहरी बनाम स्थानीय विमर्श
यह गठजोड़ “मराठी बनाम बाहरी” विमर्श को फिर से हवा दे सकता है, जिसका इस्तेमाल 2009 में मनसे ने किया था और जिसे अब एक बार फिर नई शक्ल देने की कोशिश हो रही है.
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सियासी मजबूरी या घर वापसी?

‘घर वापसी’ शब्द भावनात्मक है. ठाकरे परिवार के समर्थकों के लिए यह एक सांस्कृतिक और आत्मिक मेल की तरह है, पर राजनीति में हर कदम के पीछे एक रणनीतिक कारन होती है.
- राज ठाकरे को अपनी पार्टी के अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है.
- दोनों नेताओं को अब महसूस हो रहा है कि अलग-अलग रहकर वे न भाजपा से लड़ सकते हैं, न सत्ता में लौट सकते हैं.
- इसलिए ये मिलन भावनात्मक नहीं, व्यावहारिक ज़रूरत है — यानी सियासी मजबूरी.
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जनता और सहयोगियों की प्रतिक्रिया
शरद पवार ने इसे “मराठी स्वाभिमान का पुनर्जागरण” कहा, जबकि कांग्रेस ने इसे “धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की मजबूती” बताया. वहीं भाजपा ने इस गठबंधन को “हारे हुए नेताओं की मजबूरी का मेल” करार दिया है.
जनता में उत्साह तो है, पर संदेह भी. एक युवा मतदाता ने कहा: “अगर यह वाकई जनता के मुद्दों के लिए है तो स्वागत है, लेकिन अगर यह सिर्फ चुनावी फायदा पाने की चाल है, तो यह जल्दी उजागर हो जाएगा.”
निष्कर्ष: उम्मीद की लौ या अवसर की राजनीति?
ठाकरे बंधुओं का एक होना निश्चित रूप से ऐतिहासिक है, लेकिन इसे केवल भावनात्मक चश्मे से देखने की गलती नहीं होनी चाहिए.यह मेल अगर केवल चुनाव जीतने की रणनीति है, तो टिकाऊ नहीं होगा. लेकिन अगर यह मराठी अस्मिता, लोकतंत्र और विकास के असली मुद्दों पर केंद्रित रहेगा, तो यह महाराष्ट्र की राजनीति में एक नई धारा बन सकता है.
क्या यह मेल महाराष्ट्र को नई दिशा देगा या सिर्फ पुराने नामों का नया प्रयोग है? आपके विचार हमारे साथ साझा करें.लेटेस्ट राजनीतिक विश्लेषण और अपडेट्स के लिए हमारी वेबसाइट विज़िट करते रहें.
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