भोजपुरी के शेक्सपियर: भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि पर विशेष श्रद्धांजलि!

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Prakash Ranjan

बिहारकला-साहित्य
भोजपुरी के शेक्सपियर: भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि

लोक कला के अमर सूर्य, जिन्होंने मंच से समाज बदलने का साहस दिखाया

तीसरा पक्ष डेस्क,पटना: आज 10 जुलाई 2025 को भोजपुरी संस्कृति के सबसे चमकते सितारे, लोक नाट्य के पितामह और जनजागरण के अग्रदूत भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि है. एक ऐसा कलाकार, जिसने न सिर्फ भोजपुरी को देश दुनिया के रंग मंच पर गौरव दिलाया, बल्कि अपने नाटकों, गीतों और अभिनय से समाज की कुरीतियों को चुनौती दी. आज पूरा बिहार और भोजपुरी समाज उन्हें याद कर रहा है.

“बिदेसिया” का वो महान सृजक, जिसने पीड़ा को कविता बना दिया”

भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर, 1887 को बिहार के सारण जिले (अब छपरा) के कुतुबपुर गाँव में हुआ था. पढ़ाई-लिखाई नहीं थी, लेकिन जीवन का अनुभव और समाज की पीड़ा उनके भीतर कूट-कूटकर भरी थी..उन्होंने “बिदेसिया”, “बेटी-बेचवा”, “गबरघिचोर” और “भाई-बिरोध” जैसे नाटकों के माध्यम से पलायन, दहेज प्रथा, शराबखोरी और सामाजिक भेदभाव जैसे मुद्दों को उठाया.

उनका नाटक “बिदेसिया” आज भी भोजपुरी समाज की आवाज बना हुआ है, जिसमें प्रवासी मजदूरों की पीड़ा को दर्शाया गया है. उनके गीतों में स्त्री की वेदना, गाँव की मिट्टी की खुशबू और जीवन के संघर्षों की झलक मिलती है.

नाच, गाना, अभिनय: वो सबकुछ जिसने लोककला को नया आयाम दिया

भोजपुरी के शेक्सपियर: भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि

भिखारी ठाकुर सिर्फ नाटककार नहीं थे—वे एक बेहतरीन गायक, नर्तक, अभिनेता और समाज सुधारक भी थे. उन्होंने “लौंडा नाच” (पुरुषों द्वारा स्त्री की वेशभूषा में नृत्य) की परंपरा को नया रूप दिया. उन्होंने अपने नृत्य,अभिनय कला और आम जनता से जुड़े गीत को सामाजिक संदेश देने का माध्यम बनाया.

उनके नाटकों में हास्य, करुणा, प्रेम और विद्रोह का अनूठा मिश्रण था. वे गाँव-गाँव जाकर नुक्कड़ नाटक करते थे और लोगों को जागरूक करते थे. उनकी प्रस्तुतियाँ इतनी प्रभावशाली थीं कि लोग रो पड़ते थे या आंदोलन के लिए उठ खड़े होते थे.

“भोजपुरी का शेक्सपियर”: जिसने भाषा को सम्मान दिलाया

भिखारी ठाकुर को “भोजपुरी का शेक्सपियर” कहा जाता है. उन्होंने भोजपुरी को साहित्य और रंगमंच की भाषा के रूप में स्थापित किया. उनके गीतों में भोजपुरी की मिठास और जनभावनाओं की गहराई झलकती है.

आज भी उनके गीत “हमार गाँव की चिरइया…”, “कोइली बोले कुहुक-कुहुक…” और “निर्धन के धन बिदेसिया…” लोकप्रिय हैं. उन्होंने भोजपुरी को सिर्फ बोली नहीं, बल्कि एक सशक्त सांस्कृतिक धरोहर बना दिया.

गांव-गवईं की आत्मा को मंच पर उतारने वाले कलाकार

भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों, गीतों और कविताओं में ग्रामीण जीवन की सच्चाइयों, सामाजिक कुरीतियों और पारिवारिक संघर्षों को जिस प्रकार उकेरा, वह अद्वितीय है. उनका प्रसिद्ध नाटक ‘बिदेसिया’ आज भी पूर्वी भारत के लोकमंचों की जान है. प्रवासी मजदूरों की पीड़ा, स्त्री की वेदना, सामाजिक विषमता—हर विषय उनके लेखन में दमदार रूप में सामने आता है.

आज भी प्रासंगिक हैं भिखारी ठाकुर के विचार

भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में जिन सामाजिक बुराइयों को उठाया था, वे आज भी हमारे बीच मौजूद हैं. दहेज, शराबखोरी, पलायन और स्त्री-शोषण जैसे मुद्दे अभी भी समाज को कुरेदते हैं. उनकी रचनाएँ हमें याद दिलाती हैं कि “कला सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि परिवर्तन का हथियार भी है.”

समाज और सरकार को क्या करना चाहिए?
  • भिखारी ठाकुर की रचनाओं को भोजपुरी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए.
  • उनके नाटकों का डिजिटलीकरण कर युवाओं तक पहुँचाया जाए.
  • बिहार सरकार को “भिखारी ठाकुर लोक कला सम्मान” की शुरुआत करनी चाहिए.
  • उनके गाँव कुतुबपुर को एक सांस्कृतिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए.
निष्कर्ष: एक अमर विरासत

भिखारी ठाकुर ने कहा था—“जब तक समाज में अन्याय है, कलाकार का संघर्ष जारी रहेगा.” आज उनकी पुण्यतिथि पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम उनके सपनों का समाज बनाएँगे. भोजपुरी की इस महान विभूति को कोटि-कोटि नमन!

पाठकों से अपील: अगर आपने भिखारी ठाकुर का कोई नाटक देखा है या उनके गीत सुने हैं, तो कमेंट में अपने अनुभव साझा करें!**

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