चंद्रशेखर आजाद का सवाल: बरेली में नाइंसाफी छिपाने के लिए पुलिस की दीवार क्यों?

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Ajit Kumar

भारत
चंद्रशेखर आजाद का सवाल: बरेली में नाइंसाफी छिपाने के लिए पुलिस की दीवार क्यों?

अगर नाइंसाफी नहीं हो रही तो रोक क्यों? चंद्रशेखर आज़ाद का बरेली सवाल

तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना,3 अक्टूबर 2025 – भारतीय राजनीति में जब भी बहुजन समाज के अधिकारों और न्याय की बात होती है, तो भीम आर्मी के प्रमुख और आजाद समाज पार्टी (ASP) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद का नाम सबसे आगे आता है. हाल ही में उन्होंने 2 अक्टूबर को अपने X (पूर्व ट्विटर) अकाउंट से एक पोस्ट किया, जिसने राजनीतिक हलकों में नई बहस छेड़ दी है.

अपने काव्यात्मक अंदाज़ और धारदार सवालों के जरिये चंद्रशेखर आजाद ने एक बार फिर सरकार और व्यवस्था को घेरा.उन्होंने सीधे तौर पर योगी आदित्यनाथ की सरकार और पुलिस प्रशासन से सवाल किया कि अगर बरेली में उनके मुस्लिम भाइयों के साथ कोई नाइंसाफी नहीं हुई है, तो उन्हें वहां जाने से रोका क्यों जा रहा है?

यह पोस्ट केवल एक राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि लोकतंत्र, संविधान और न्याय के मुद्दों पर खड़ा किया गया गंभीर सवाल है.

चंद्रशेखर आज़ाद की पोस्ट: शब्दों में विद्रोह, सवालों में आग

चंद्रशेखर आज़ाद की पोस्ट: शब्दों में विद्रोह, सवालों में आग

आजाद ने अपनी पोस्ट की शुरुआत शेर-ओ-शायरी के अंदाज़ में की है.

“लश्कर भी तुम्हारा है, सरदार तुम्हारा है,
तुम झूठ को सच लिख दो, अख़बार तुम्हारा है.

इन पंक्तियों के ज़रिए उन्होंने यह इशारा किया कि सत्ता, मीडिया और प्रशासन सब कुछ सरकार के नियंत्रण में है.

इसके बाद उन्होंने लिखा:
“इस दौर के फरियादी जायें तो कहां जायें,
कानून तुम्हारा है, दरबार तुम्हारा है.

यहां पर आज़ाद ने व्यवस्था की उस सच्चाई को उजागर किया है , जिसमें आम जनता अपने हक़ और न्याय की गुहार लगाने के बावजूद असहाय महसूस करती है, क्योंकि सत्ता के सारे दरवाज़े उन्हीं ताक़तवर लोगों के हाथों में हैं.

उन्होंने आगे लिखा कि,
“सूरज की तपन तुमसे बर्दाश्त नहीं होती,
इक मोम के पुतले सा किरदार तुम्हारा है.

यह पंक्तियां साफ़ तौर पर सत्ता पर कटाक्ष करती हैं कि जिनके कंधों पर लोकतंत्र की रक्षा की ज़िम्मेदारी है, वही आलोचना और सच्चाई की गर्मी सहन नहीं कर पाते.

लोकतंत्र बनाम तानाशाही का प्रश्न

लोकतंत्र बनाम तानाशाही का प्रश्न

चंद्रशेखर आज़ाद ने अपनी पोस्ट में केवल साहित्यिक भाव नहीं डाले, बल्कि लोकतंत्र को लेकर गंभीर सवाल भी खड़े किये है. उन्होंने कहा,

“लेकिन पुलिस को आगे करके लोकतंत्र को कुचलने वालो तानाशाहो सुन लो,
तानाशाहों को अगर जिद है हम पर पहरा बैठाने की…
तो हमने भी ठानी है इस बहुजन समाज को न्याय दिलाने की…”

इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि आज़ाद खुद को केवल एक राजनीतिक नेता के तौर पर नहीं, बल्कि बहुजन समाज और हाशिये पर खड़े समुदायों की आवाज़ के रूप में देख रहे हैं.

बरेली विवाद और योगी सरकार पर सवाल

बरेली विवाद और योगी सरकार पर सवाल

आजाद का सबसे बड़ा सवाल यही था कि अगर बरेली में मुस्लिम समुदाय के साथ कोई अन्याय नहीं हुआ, तो सरकार उन्हें वहां जाने से क्यों रोक रही है?

उनका यह सवाल सीधे तौर पर पारदर्शिता और लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ा है.लोकतंत्र में किसी भी नागरिक या नेता को किसी भी क्षेत्र में जाकर पीड़ितों से मिलने और उनकी समस्याएं समझने का अधिकार है. लेकिन अगर सरकार पुलिस बल का इस्तेमाल करके इस आवाजाही पर रोक लगाती है, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना जाएगा.

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राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

चंद्रशेखर आज़ाद का यह बयान कई मायनों में महत्वपूर्ण है:

बहुजन राजनीति की धार – आज़ाद लगातार दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों की आवाज उठाकर एक मज़बूत सामाजिक आधार बना रहे हैं.

योगी सरकार पर दबाव – उनके सवाल सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश की सरकार की नीतियों और निर्णयों पर सवालिया निशान लगाते हैं.

मुस्लिम-दलित एकता का संकेत – आज़ाद की इस पोस्ट से यह भी साफ है कि वे दलित और मुस्लिम समुदाय के बीच गठजोड़ को मजबूत करना चाहते हैं.

लोकतंत्र की रक्षा का संदेश – लोकतंत्र में पुलिस और प्रशासन का काम नागरिकों की सुरक्षा है, न कि राजनीतिक विरोध को दबाना.

सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया

चंद्रशेखर आज़ाद की इस पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. कुछ लोग इसे लोकतंत्र की रक्षा का साहसिक कदम बता रहे हैं, तो कुछ इसे राजनीति से प्रेरित बयान मान रहे हैं. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह पोस्ट बहस का बड़ा मुद्दा बन गई है.

निष्कर्ष

चंद्रशेखर आजाद का 2 अक्टूबर का यह पोस्ट सिर्फ एक ट्वीट नहीं, बल्कि लोकतंत्र और न्याय की बहस को नया आयाम देने वाला बयान है. जब वे पूछते हैं कि “अगर बरेली में कुछ गलत नहीं हो रहा, तो मुझे जाने से क्यों रोका जा रहा है?” तो यह सवाल केवल उनके लिए नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए खड़ा होता है.

उनकी यह बात साफ़ है कि चाहे कितनी भी रुकावटें डाली जाएं, वे बहुजन समाज और हाशिये पर खड़े समुदायों की आवाज बनकर संघर्ष जारी रखेंगे.

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