अखिलेश यादव के पोस्ट ने खोली सरकारी संवेदनहीनता की पोल
तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना,27 नवंबर 2025 — भारत में लोकतंत्र की मज़बूती के लिए चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता बेहद ज़रूरी है. लेकिन जब इसी प्रक्रिया में शामिल कर्मचारी मानविक दबाव का शिकार बनकर अपनी जान गंवाने लगें, तब मामला केवल प्रशासनिक विफलता नहीं रहता—यह सीधे-सीधे संवेदनहीनता का मुद्दा बन जाता है.
इसी संदर्भ में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने X (Twitter) पोस्ट में भाजपा सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं.उन्होंने बीएलओ (Booth Level Officer) की लगातार हो रही मौतों पर गहरा दुख जताते हुए कहा कि सरकार न केवल शोक व्यक्त करने से बच रही है, बल्कि जिनकी जान जा रही है, उन्हीं के ऊपर कामचोरी जैसे आरोप लगा रही है.
यह लेख अखिलेश यादव के पोस्ट के हवाले से इस पूरे संकट, सरकारी रवैये और सामाजिक प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
बीएलओ की मौतें: चुनावी दबाव या प्रशासनिक असंवेदनशीलता?
अखिलेश यादव के बयान में सबसे बड़ा सवाल यही है है कि,
आखिर चुनावी व्यवस्था में ऐसा क्या बदल गया है कि बीएलओ अपनी जान तक गंवा रहे हैं?
कई राज्य-स्तरीय रिपोर्टों और सोशल मीडिया पर सामने आ रही जानकारी के मुताबिक, SIR के नाम पर भारी वर्कलोड, समय सीमा से परे दबाव, और रात-दिन होने वाली वेरिफिकेशन ड्राइव ने फील्ड कर्मचारियों की हालत खराब कर दिया है .
जो कर्मचारी सामान्यतः मतदाता सूची अपडेट का काम संभालते थे, वे अब अत्यधिक मीट्रिक और दबाव के कारण मानसिक और शारीरिक तनाव से गुजर रहे हैं.
अखिलेश यादव का आरोप है कि,
सरकार मौतों को सिस्टम इश्यू मानने से इंकार कर रही है.
परिवारों को न तो सांत्वना दी जा रही है, न मुआवज़ा.
दोष कर्मचारियों पर डालकर पूरी घटनाओं से पल्ला झाड़ा जा रहा है.
यह रवैया उन परिवारों के लिए और भी दर्दनाक है, जिन्होंने अपने सदस्य को कर्तव्य निभाते हुए खो दिया.
सत्ता का दंभ और संवेदनहीनता का आरोप
अखिलेश यादव ने पोस्ट में तीखे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि भाजपा सरकार सत्ता के घमंड में अमानवीय हो चुकी है.
उनके अनुसार,
सत्ता के अहंकार में सरकार यह मानकर चल रही है कि काम के दबाव से किसी की मौत हो जाए, तब भी न व्यवस्था सुधरेगी और न मुआवज़ा दिया जाएगा.
भाजपा के कट्टर समर्थक भी अब असहज महसूस कर रहे हैं
सामाजिक रिश्तों में दरार तक पड़ने लगी है
यह बात भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण संकेत है.जब किसी दल के भीतर या उसके समर्थकों में असंतोष बढ़ने लगे, तो यह दर्शाता है कि जमीन-स्तर पर वास्तव में कुछ गंभीर गड़बड़ है.
भाजपाई शब्द का नकारात्मक छवि के रूप में उपयोग—एक सामाजिक बदलाव
अखिलेश यादव का यह दावा कि भाजपाई होना एक तरह से नकारात्मक रूप से इस्तेमाल होने लगा है अपने आप में राजनीतिक और सामाजिक दोनों रूप से महत्वपूर्ण है.
इस वाक्य की गहराई कई स्तरों पर समझने योग्य है.
सत्ता से जुड़े लोगों की छवि पर असर.
लगातार कठोर निर्णयों, पुलिस-प्रशासनिक सख्ती और जनता की शिकायतों की अनदेखी ने एक वर्ग में भाजपा कार्यकर्ताओं की छवि प्रभावित की है.
समर्थकों की सामाजिक मुश्कि.
अखिलेश यादव का कहना है कि जनाक्रोश और शर्मिंदगी के कारण भाजपा समर्थक उन परिवारों के घर तक नहीं जा पा रहे, जिनके प्रियजन काम के दबाव के चलते चल बसे.
जनता का गुस्सा और अविश्वास
यह एक गंभीर संकेत है कि लोगों के बीच में शासन के प्रति अविश्वास बढ़ रहा है.
बीएलओ की स्थिति: जमीनी हकीकत
बीएलओ वे कर्मचारी हैं जो
घर-घर जाकर मतदाता सूची की पुष्टि करते हैं
नए वोटर जोड़ते हैं
स्थानांतरण/मृत्यु जैसी अपडेट करते हैं
कई बार सामाजिक-राजनीतिक दबाव झेलते हैं
उन्हें अक्सर:
कम संसाधन
कम स्टाफ
ज्यादा टारगेट
और समय की भारी कमी
इन सबके बीच काम करना पड़ता है.
जब एक कर्मचारी लगातार लंबे समय तक तनाव में रहता है, तो उसकी सेहत पर इसका बुरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है.
सरकार की चुप्पी और विपक्ष के सवाल
अखिलेश यादव का आरोप केवल आलोचना के लिए आलोचना नहीं है.
मुद्दा यह है कि अभी तक,
कोई बड़ी सरकारी जांच नहीं
मौतों को वर्क प्रेशर से जुड़ा मुद्दा मानने से इंकार
परिवारों को उचित मुआवज़ा या सहायता का अभाव
SIR सिस्टम में किसी सुधार की घोषणा नहीं
जब सरकार इस स्तर पर चुप रहती है, तो विपक्ष की आवाज़ और तेज़ हो जाती है.
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समाधान क्या हो सकते हैं?
यदि वास्तव में सरकार संवेदनशीलता दिखाना चाहे, तो निम्न कदम बेहद ज़रूरी हैं.
SIR प्रक्रिया को मानवीय और समय-बद्ध तरीके से पुनर्गठित किया जाए
बीएलओ के लिए मानसिक स्वास्थ्य एवं हेल्थ सपोर्ट सिस्टम तैयार किया जाए
मृतक परिवारों को तुरंत मुआवज़ा दिया जाए
लंबे कार्य घंटों पर रोक लगे, सीमित लक्ष्य निर्धारित हों
स्वतंत्र समिति द्वारा मौतों की जांच कराई जाए
निष्कर्ष
अखिलेश यादव का X पोस्ट केवल एक राजनीतिक हमला नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर बढ़ती मानवीय त्रासदी की ओर ध्यान आकर्षित करता है.
जब कोई लोकतांत्रिक देश चुनावी प्रक्रिया चलाने वाले कर्मचारियों की सुरक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देता, तो परिणाम बेहद चिंताजनक होते हैं.
बीएलओ केवल सरकारी कर्मचारी नहीं—वे लोकतंत्र की रीढ़ हैं.
उनकी सुरक्षा, सम्मान और परिवारों की चिंता को प्राथमिकता देना ही किसी भी संवेदनशील सरकार की जिम्मेदारी होती है.
अगर सरकार इन मुद्दों की अनदेखी करती है, तो जनता के गुस्से, अविश्वास और विपक्ष के सवाल समय के साथ और मजबूत होंगे.

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