आशाओं की गुलाबी साड़ी की गूंज,आधी जीत के बाद अब आर-पार की लड़ाई

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Kumar Ranjit

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12 अगस्त को गर्दनीबाग में जुटेगी हज़ारों आशाएं, हक के लिए उठेगी एकजुट आवाज़

तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना, 30 जुलाई :बिहार की आशा कार्यकर्ताओं के संघर्ष ने एक बार फिर सरकार को झुकने पर मजबूर किया है. हाल ही में राज्य सरकार द्वारा घोषित मासिक मानदेय में बढ़ोतरी को आशा और आशा फैसिलिटेटरों ने अपने आंदोलनों की पहली छोटी लेकिन अहम जीत करार दिया है. यह सफलता कई महीनों का मेहनत, धरने, हड़तालों और जनदबाव का यह नतीजा है.

हड़तालों और घेराव का दबाव काम आया

बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ (संबद्ध महासंघ गोप गुट/ऐक्टू) ने स्पष्ट किया है कि यह बढ़ोतरी सिर्फ़ उनकी 5 दिवसीय राज्यव्यापी हड़ताल, 9 जुलाई की राष्ट्रीय हड़ताल और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय के खिलाफ किये गये अनेक विरोध प्रदर्शनों की देन है. लेकिन संघ ने इसे सिर्फ़ आधी जीत माना है.

पुराना समझौता, अधूरी कार्रवाई

संघ के अध्यक्ष और विधान पार्षद कॉ. शशि यादव ने कहा कि सरकार ने पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव के साथ हुए समझौते की मुख्य मांगों को दरकिनार कर दिया है. खासकर उस समझौते के तहत मानदेय में तत्काल और प्रभावी बढ़ोतरी की बात को मौजूदा मंत्री मंगल पांडेय की अगुवाई वाली सरकार ने नज़रअंदाज़ कर दिया है.

आशाओं की मुख्य मांगें क्या हैं?

आशा और आशा फैसिलिटेटरों को मानदेयकर्मी या एनएचएम कर्मचारी का दर्जा दिया जाए.

मानदेय बढ़ोतरी का भुगतान उस तारीख से हो जब समझौता हुआ था.

केंद्र सरकार जुलाई 2024 में एनएचएम द्वारा की गई 3500 रुपये मासिक मानदेय की सिफारिश को तुरंत लागू करे.

केंद्र पर भी सवाल

संघ ने केंद्र सरकार के चुप्पी पर भी सवाल उठाया हैं.उनका कहना है कि 2018 के बाद केंद्र ने आशाओं को मिलने वाली सहायता राशि में कोई बढ़ोतरी नहीं किया है. अब जबकि एनएचएम खुद मानदेय बढ़ाने की सिफारिश कर चुका है.मोदी सरकार की खामोशी निराशाजनक है.

12 अगस्त को होगा निर्णायक प्रदर्शन

कॉ. शशि यादव ने एलान किया है कि 12 अगस्त को पटना का गर्दनीबाग गुलाबी साड़ी से पट जाएगा. एक ऐसा दृश्य जो सरकार को चेतावनी देगा कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुआ है. उन्होंने कहा कि अब राज्यभर के आशा कार्यकर्ता सरकार के मंत्रियों की सभाओं में तख्तियां लेकर पहुँचेंगी और दो टूक सवाल पूछेंगी कि

“हमें राज्य कर्मी का दर्जा दो! हमारा हक दो!”

यह सिर्फ़ एक आंदोलन नहीं बल्कि हक और सम्मान की जंग है. जो तब तक रुकेगी नहीं जब तक अंतिम आशा कार्यकर्ता को उसका अधिकार नहीं मिल जाता.

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