दरभंगा के भूभौल गांव में लोकतंत्र का दरवाज़ा दस्तावेज़ों से बंद
तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना 22 जुलाई:बिहार के दरभंगा जिले के भूभौल गांव के लोग इन दिनों एक अनोखे संकट से जूझ रहे हैं.हालिया बाढ़ ने गांव के घरों के साथ-साथ लोगों के लोगों की ज़मीन और पहचान से जुड़े तमाम दस्तावेज़ भी निगल लिए. अब जब चुनाव आयोग SIR यानी ‘स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न’ के तहत वोटर लिस्ट ठीक कर रहा है, तो बाढ़ पीड़ितों के लिए एक और मुश्किल खड़ी हो गई है — उनके पास जरूरी कागज़ ही नहीं बचे, तो नाम जुड़वाएं कैसे?पहचान साबित करने के लिए कोई दस्तावेज़ नहीं बचा है.
जब दस्तावेज़ मिट गए, तो पहचान कैसे बचेगी?
भारत में हर पांच साल में चुनाव आता है.और हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. लेकिन क्या होगा जब कोई नागरिक जिंदा हो लेकिन उसके पास खुद के अस्तित्व का कोई ‘कागज़ी सबूत’ न हो? क्या वह व्यक्ति लोकतंत्र का हिस्सा रहेगा?
यही सवाल आज बिहार के दरभंगा ज़िले के एक छोटे से गांव भूभौल के लोगों पर खड़ा हो गया है. यहां हाल ही में आई भीषण बाढ़ ने लोगों के घर तोड़ दिया घर द्वार सब पानी में बह गया.ज़मीन की सीमाएं मिट गई और साथ ही उनकी पहचान के सभी दस्तावेज़ भी बहा ले गये.
SIR प्रक्रिया में फंसे बाढ़ पीड़ित
इन दिनों भारत में चुनाव आयोग SIR नाम का एक खास अभियान चला रहा है, जिसमें वोटर लिस्ट को ठीक किया जा रहा है। जिन लोगों का नाम लिस्ट में नहीं है या कोई गड़बड़ी है, उन्हें इसमें जोड़ा या सुधारा जा रहा है. वे दस्तावेज़ों के माध्यम से आवेदन कर सकता हैं.
लेकिन भूभौल गांव जैसे इलाके जहां लोगो का दस्तावेज़ ही खो बैठा हैं.वहां इस प्रक्रिया ने एक नई समस्या खड़ा कर दिया है.
मुकेश साहनी का सवाल: क्या लोकतंत्र सिर्फ कागज़ वालों के लिए है?
विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के नेता और पूर्व मंत्री मुकेश साहनी ने इस गंभीर विषय को सोशल मीडिया पर उठाया है. उन्होंने एक्स पर अपने हैंडल @sonofmallah से एक पोस्ट में लिखा है कि,
दरभंगा के भूभौल गांव में लोग तो जिंदा हैं, पर कागज़ों में उनका कोई नाम-ओ-निशान नहीं। बाढ़ सब कुछ ले गई — घर, ज़मीन के कागज़, पहचान… जैसे वो थे ही नहीं कभी
अब चुनाव आयोग कहता है SIR के तहत दस्तावेज दो, तभी नाम जुड़ेगा!
तो सवाल ये है, क्या SIR सिर्फ उन लोगों के लिए है जिनके पास कागज हैं?
क्या भूभौल जैसे गांवों के लोगों को लोकतंत्र से बाहर कर दिया जाएगा. सिर्फ इसलिए कि उनके पास अब कोई सबूत नहीं बचा?”
मुकेश साहनी का यह सवाल सिर्फ चुनाव आयोग पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर है.
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ग्रामीणों की हालत: राहत कम, समस्याएं ज़्यादा
भूभौल गांव के कई लोगों से बात करने पर यह स्पष्ट होता है कि बाढ़ राहत के नाम पर उन्हें अब तक कुछ खास नहीं मिला है. जो लोग अपने घरों में नहीं लौट पाए. वे स्कूलों या पंचायत भवन में अस्थायी रूप से रह रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ी चिंता यह है कि अब वे वोट देने के अधिकार से भी वंचित हो सकते हैं.
“हम तो जिंदा हैं, लेकिन हमारे कागज सब पानी में बह गया.अब वोटर लिस्ट में नाम कैसे जुड़वाएं?”यह सवाल एक बुजुर्ग ग्रामीण ने मीडिया से पूछते हुए कहा.
क्या हो सकता है समाधान?
इस समस्या का समाधान असंभव नहीं है.अगर प्रशासन संवेदनशीलता दिखाए. कुछ सुझाव:
स्थानीय पंचायत, स्कूल या प्रशासनिक प्रमाण पत्रों को वैकल्पिक पहचान के रूप में स्वीकार किया जाए.
आधार कार्ड और पुराने दस्तावेज़ों की डिजिटल प्रतियों को मान्यता दी जाये.
आश्रय शिविरों में रह रहे लोगों की एक विशेष सूची बनाई जाये. जिन्हें SIR प्रक्रिया के अंतर्गत विशेष महत्व दिया जाना चाहिए
निष्कर्ष: लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट डालना नहीं है, सबको समान अधिकार देना भी है
भूभौल गांव की यह स्थिति एक चेतावनी है सिर्फ बाढ़ से घर नहीं बहते अगर व्यवस्था में लचीलापन न हो तो लोकतांत्रिक अधिकार भी बह सकता हैं.
चुनाव आयोग को चाहिए कि वह SIR प्रक्रिया में विशेष हालात वाले नागरिकों के लिए वैकल्पिक उपाय तय करे. कहीं ऐसा न हो कि जो सबसे ज़्यादा पीड़ा में हैं, वही लोकतंत्र के हक़ से वंचित कर दिए जाएं
क्योंकि जब लोकतंत्र कागज़ों पर सिमट जाए, तो इंसान खुद को सिर्फ संख्या समझने लगता है और अधिकार दूर खड़ा हो जाता हैं.

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