रिटायर्ड जजों द्वारा राज्यपाल, आयोगों के अध्यक्ष जैसे सरकारी पदों को स्वीकार करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं?
तीसरा पक्ष डेस्क,नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस अभय एस. ओका 24 मई 2025 , शनिवार को रिटायर हो गए लेकिन विदाई समारोह में अपनी बातों से एक गंभीर बहस भी छेड़कर चले गए. उन्होंने मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई के मौजूदगी में अपने रिटायरमेंट के अंतिम दिन एक ऐसी घोषणा की, जिसने भारतीय न्यायिक और राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि वह रिटायरमेंट के बाद किसी भी सरकारी पद को स्वीकार नहीं करेंगे. इस बयान को मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई ने भी समर्थन दिया, जिन्होंने स्वयं भी ऐसी ही प्रतिबद्धता जताई. यह घोषणा न केवल उनके व्यक्तिगत सिद्धांतों को दर्शाती है, बल्कि भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को भी उजागर करती है.
मामले की गंभीरता को समझिए
जस्टिस ओका का यह फैसला उस समय आया है, जब रिटायर्ड जजों द्वारा सरकारी पदों, जैसे राज्यपाल, आयोगों के अध्यक्ष, या अन्य प्रशासनिक भूमिकाओं को स्वीकार करने की प्रथा पर देश में लंबे समय से बहस चल रही है. कई बार ऐसी नियुक्तियों पर सवाल उठाए गए हैं कि क्या ये न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं. कुछ रिटायर्ड जजों की सरकारी पदों पर नियुक्ति को लेकर विवादों ने यह धारणा को और मजबूत बनाई है कि ऐसी नियुक्तियां जजों की निष्पक्षता पर सवाल उठा सकती हैं. इस पृष्ठभूमि में, जस्टिस ओका और सीजेआई गवई का यह कदम न केवल व्यक्तिगत बल्कि भविष्य के लिए एक उदहारण भी है, जो न्यायपालिका की गरिमा और स्वायत्तता को बनाए रखने की दिशा में एक मजबूत संदेश देता है.
जस्टिस ओका ने अपने करियर में हमेशा संविधान और कानून के शासन को सर्वोच्च माना. उनके विदाई समारोह में सीजेआई गवई ने उनकी निष्ठा और निर्भीकता की प्रशंसा करते हुए कहा कि जस्टिस ओका ने हमेशा सत्ता को जवाबदेह ठहराने में संकोच नहीं किया. यह बयान इस बात का संकेत है कि जस्टिस ओका का निर्णय उनकी उस सोच का हिस्सा है, जो न्यायपालिका को किसी भी राजनीतिक या सरकारी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती है.
जस्टिस ओका का यह प्रेरक कदम
जस्टिस ओका का यह कदम भारतीय समाज और न्यायिक व्यवस्था के लिए एक मिसाल बन सकता है. यह न केवल उनके व्यक्तिगत मूल्यों को दर्शाता है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि क्या अन्य जजों को भी ऐसी राह चुननी चाहिए. यह निर्णय उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब हाल के वर्षों में कुछ रिटायर्ड जजों की सरकारी नियुक्तियों ने विवादों को जन्म दिया है. उनका यह कदम युवा न्यायाधीशों और कानूनी बिरादरी के लिए एक प्रेरणा हो सकता है कि वे अपने करियर के दौरान और बाद में भी नैतिकता और निष्पक्षता को प्राथमिकता दें.
इसके अलावा, जस्टिस ओका का यह बयान संविधान की सर्वोच्चता पर उनके विश्वास को भी रेखांकित करता है. उनके करियर के दौरान, चाहे वह बॉम्बे हाई कोर्ट में वकालत हो, कर्नाटक हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवा, या सुप्रीम कोर्ट में उनकी भूमिका, उन्होंने हमेशा कानून के शासन को मजबूत करने का प्रयास किया. यह घोषणा उनके उस दृढ़ विश्वास का प्रतीक है कि न्यायपालिका को न केवल कार्यकाल के दौरान, बल्कि उसके बाद भी स्वतंत्र और निष्पक्ष रहना चाहिए.
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भविष्य के लिए साहसिक संदेश
जस्टिस ओका और सीजेआई गवई का यह संकल्प भारतीय न्यायिक व्यवस्था में एक नए अध्याय की शुरुआत कर सकता है. यह समाज को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या रिटायर्ड जजों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की प्रथा को और पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की जरूरत है. यह कदम न केवल उनकी व्यक्तिगत साहसिक कदम को दर्शाता है, बल्कि यह भी संदेश देता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए व्यक्तिगत बलिदान और साहस की आवश्यकता होती है.

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