महंगाई, बेरोजगारी और सुरक्षा संकट: क्या इस बार संसद में होगी गंभीर चर्चा?
तीसरा पक्ष ब्यूरो नई दिल्ली, 21 जुलाई:आज से देश की संसद का बहुप्रतीक्षित मानसून सत्र आरंभ हो गया है. संसद के इस सत्र को लेकर जहां आम जनता कई अहम फैसलों और नीतियों की उम्मीद लगाए बैठी है. वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने सत्र शुरू होने से ठीक पहले एक गंभीर और सधी हुई राजनीतिक टिप्पणी किया है.उन्होंने साफ शब्दों में आशंका जताई है कि यह सत्र भी अन्य सत्रों की तरह सिर्फ राजनीतिक टकराव, आरोप-प्रत्यारोप और हंगामे की भेंट न चढ़ जाये.
टकराव नहीं, समाधान चाहिए: मायावती का सशक्त संदेश
मायावती ने ट्विटर (एक्स) पर एक विस्तृत पोस्ट के ज़रिए देश की संसद की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि अगर संसद में जनता से जुड़े अहम मुद्दों पर समुचित बहस नहीं होती और ठोस नीतियाँ नहीं बनतीं है तो इसका असर सीधे उन करोड़ों गरीब और मेहनतकश लोगों पर पड़ेगा जो बेहतर भविष्य की आस में संसद की ओर देखते हैं.
उनका इशारा इस ओर था कि बीते कई सत्रों में विपक्ष और सरकार के बीच केवल राजनीतिक खींचतान और वॉकआउट जैसे दृश्य देखने को मिले है लेकिन आम जनता के मुद्दों पर सार्थक संवाद नहीं हो पाया.
देश जिन संकटों से जूझ रहा है…
मायावती ने अपने वक्तव्य में देश के समकालीन संकटों की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया:
- महंगाई: आम आदमी की कमर तोड़ती लगातार बढ़ती महंगाई.
- बेरोज़गारी: युवाओं में बढ़ती हताशा और रोजगार के सीमित अवसर.
- महिला असुरक्षा: महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध और असुरक्षा की भावना.
- क्षेत्रीय-भाषाई विवाद: विभिन्न राज्यों में भाषा और पहचान को लेकर तनावपूर्ण स्थितियाँ.
- सुरक्षा संकट: आंतरिक सुरक्षा और सीमाओं पर बढ़ती चुनौती.
उनका मानना है कि जब तक इन मुद्दों पर गहन बहस नहीं होगी और उनकी पृष्ठभूमि में दीर्घकालिक नीति नहीं बनेगी. तब तक ‘अच्छे दिन’ केवल नारे ही बने रहेंगे.
वैश्विक परिदृश्य और भारत की चुनौती
उन्होंने यह भी कहा कि मौजूदा वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक माहौल लगातार नए नए खतरे उत्पन्न कर रहा है. दुनिया में बढ़ते अस्थिरता और टकराव का सीधा असर भारत जैसे विकासशील लोकतंत्रों पर पड़ता है. ऐसे में भारत सरकार की केवल अपनी सजगता पर्याप्त नहीं होगी. बल्कि यह ज़रूरी है कि सरकार, विपक्ष और समूचा राष्ट्र एक साझा रणनीति के तहत आगे बढ़े.
संसद की भूमिका: जन सुरक्षा और भरोसे का मंच
मायावती के अनुसार संसद सिर्फ कानून पास करने का जगह नहीं है.बल्कि जनता के विश्वास का प्रतीक मंच है. यदि यहां जनहित पर ठोस बहस नहीं होगी और सरकार विपक्ष की बात नहीं सुनेगी या विपक्ष केवल अवरोध की राजनीति करेगातो लोकतंत्र कमजोर होगा.
उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी न सिर्फ सरकार का है बल्कि विपक्ष का भी है.
संसद से अपेक्षाएँ: बहस नहीं, तो हल कैसे?
मायावती ने स्पष्ट किया कि संसद को केवल सरकार और विपक्ष के बीच रस्मी टकराव का मंच नहीं बनना चाहिये. बल्कि देशहित में ठोस और दूरगामी नीतियों पर सार्थक बहस होनी चाहिये.उन्होंने यह भी कहा कि संसद को सुचारु रूप से चलाना अब केवल राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं बल्कि जन अपेक्षा बन चुकी है.
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ऑपरेशन सिंदूर और पहलगाम नरसंहार: क्या होगी चर्चा?
अपने बयान के अंतिम हिस्से में मायावती ने पहलगाम में हुए आतंकी हमले और भारत द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का विशेष रूप से ज़िक्र किया है. उन्होंने मांग किया कि इस ऑपरेशन और उससे जुड़ी सुरक्षा रणनीति पर संसद में खुलकर चर्चा होनी चाहिये.
उनके अनुसार देश की सीमाओं और नागरिकों की सुरक्षा का जिम्मा सरकार का है. लेकिन इसमें विपक्ष का सहयोग भी उतना ही जरूरी है.ऐसे मुद्दों को राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं. बल्कि राष्ट्रीय एकता की भावना से देखना चाहिये .
क्या संसद इस उम्मीद पर खरा उतरेगी?
मायावती का यह बयान ऐसे समय आया है जब देशभर में संसद के इस सत्र से कई अहम विधेयकों और घोषणाओं की उम्मीद की जा रही है. लेकिन यह सवाल भी उतना ही बड़ा है . क्या यह सत्र एक बार फिर केवल सत्ता और विपक्ष के बीच की रस्साकशी में उलझ जाएगा?
क्या सांसद देशहित और जनहित को प्राथमिकता देंगे?
या फिर जनता को एक बार फिर यह देखना पड़ेगा कि जिन मुद्दों के लिए संसद बैठी थी. वे बहस के इंतजार में वहीं के वहीं रह गए?
निष्कर्ष
मायावती का बयान केवल राजनीतिक टिप्पणी नहीं है. बल्कि उस आम जनता की आवाज़ बनकर सामने आया है जो संसद से नतीजे चाहती है.केवल वादे नहीं. आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि संसद के पटल पर इन मुद्दों को कितनी गंभीरता से उठाया जाता है.
क्या यह संसद सत्र देश को समाधान देगा. या फिर सिर्फ सियासत की शोरगुल में दब जाएगा . यह सवाल अब हर भारतीय के मन में है.

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