सुप्रीम कोर्ट में CJI पर जूता फेंकने की कोशिश: लोकतंत्र की मर्यादा पर हमला

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Kumar Ranjit

भारत
सुप्रीम कोर्ट में CJI पर जूता फेंकने की कोशिश: लोकतंत्र की मर्यादा पर हमला

चंद्रशेखर आज़ाद ने की सख्त कार्रवाई की मांग

तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना, 6 अक्टूबर 2025 भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में न्यायपालिका को हमेशा लोकतंत्र का अंतिम स्तंभ” कहा गया है. लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी. आर. गवई पर सुनवाई के दौरान एक व्यक्ति द्वारा जूता फेंकने की कोशिश ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है.
यह घटना न केवल न्यायिक गरिमा पर हमला है, बल्कि यह समाज में बढ़ती असहिष्णुता और जातिगत मानसिकता का भी प्रतीक बन गया है .

भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ ने इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि,

यह केवल न्याय व्यवस्था पर हमला नहीं, बल्कि जातिवाद और असहिष्णुता का भी प्रतीक है.न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई भी हमला देश की आत्मा पर हमला है.

न्याय व्यवस्था पर हमला — एक खतरनाक संकेत

सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान में जहां देश के कानून की व्याख्या होती है, वहां इस तरह की हिंसक हरकत लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरे का संकेत है.
जब किसी व्यक्ति की असहमति संविधानिक माध्यमों के बजाय अभद्रता और हिंसा के जरिए व्यक्त की जाती है, तो यह लोकतंत्र की मूल भावना को चोट पहुंचाती है.

चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने ट्वीट में कहा है कि ,

“जब न्याय के सर्वोच्च मंच पर बैठे व्यक्ति की सुरक्षा और गरिमा पर हमला होता है, तो यह पूरे न्याय व्यवस्था को कमजोर करने की कोशिश होती है”

यह बयान इस बात की ओर इशारा करता है कि इस घटना को सिर्फ एक व्यक्ति की हरकत मानकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.
यह उस मानसिकता का परिणाम है, जो असहमति को संवाद के बजाय अराजकता से व्यक्त करने में विश्वास रखता है.

असहिष्णुता और जातिवाद का उभरता चेहरा

भारतीय समाज में जातिवाद और असहिष्णुता की जड़ें काफी गहरी हैं. जब यह प्रवृत्ति अदालत जैसी पवित्र संस्था तक पहुंच जाए, तो यह बेहद चिंताजनक स्थिति है.
भीम आर्मी प्रमुख ने अपने बयान में कहा कि यह घटना जातिवादी मानसिकता और असहिष्णुता का भी प्रतीक है.

भारत का संविधान समानता, न्याय और स्वतंत्रता की गारंटी देता है.
लेकिन जब समाज में एक वर्ग दूसरे वर्ग के प्रति घृणा और अपमान का भाव रखने लगता है, तो यह संविधान की आत्मा को ठेस पहुँचाता है.
ऐसे में इस घटना को केवल सुरक्षा में चूक नहीं, बल्कि सामाजिक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिये .

सख्त कार्रवाई की मांग

चंद्रशेखर आज़ाद ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग करते हुए मांग की है कि,

आरोपी पर देशद्रोह और न्यायिक गरिमा भंग करने की सबसे सख्त धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जायें .

यह मांग पूरी तरह जायज़ है.
क्योंकि जब देश के मुख्य न्यायाधीश पर हमला करने की कोशिश की जाती है, तो यह केवल एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि संविधान और न्याय व्यवस्था पर हमला होता है.
ऐसे में आरोपी पर कठोरतम दंड देकर यह संदेश दिया जाना चाहिए कि,

भारत में न्यायपालिका की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता.

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असहमति का लोकतांत्रिक तरीका ही समाधान

लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि हर नागरिक को अपनी बात कहने की आज़ादी है.
लेकिन यह आज़ादी संविधान की मर्यादाओं के भीतर रहकर होनी चाहिए.
जूता फेंकने, नारेबाज़ी या हिंसा के माध्यम से अपनी बात रखना न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है.

चंद्रशेखर आज़ाद ने बिल्कुल सही कहा कि,

“समाज में असहमति को अभद्रता और हिंसा के ज़रिए प्रकट करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है — जो किसी भी लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है.

यह वक्त है कि समाज आत्ममंथन करे और असहमति को विचार-विमर्श और संवाद के ज़रिए व्यक्त करना सीखे.

न्यायपालिका की स्वतंत्रता — राष्ट्र की आत्मा

भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत रह सकता है, जब उसकी न्यायपालिका स्वतंत्र और सुरक्षित रहे.
यदि अदालतों के भीतर भी असहिष्णुता का माहौल पैदा होगा, तो आम जनता का न्याय पर भरोसा डगमगा जाएगा.
चंद्रशेखर आज़ाद ने ठीक ही कहा है कि,

“न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई भी हमला देश की आत्मा पर हमला है”

यह बयान केवल एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक चेतावनी है — कि यदि हम न्याय की गरिमा नहीं बचा पाए, तो संविधान की आत्मा कमजोर पड़ जाएगी.

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट में CJI बी. आर. गवई पर जूता फेंकने की कोशिश केवल एक सुरक्षा उल्लंघन नहीं, बल्कि संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है.
चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेताओं की यह जिम्मेदारीपूर्ण प्रतिक्रिया इस बात का प्रमाण है कि समाज में अभी भी ऐसे लोग हैं जो न्याय और लोकतंत्र की गरिमा को सर्वोच्च मानते हैं.

इस घटना को एक चेतावनी के रूप में देखना चाहिए.
हमें असहमति को हिंसा नहीं, बल्कि संवाद और संविधान के रास्ते से प्रकट करना होगा.
क्योंकि न्यायपालिका की सुरक्षा, लोकतंत्र की सुरक्षा है.

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