पहचान और अधिकारों की रक्षा का संघर्ष
तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना,20 अक्टूबर 2025—झारखंड की धरती एक बार फिर उलगुलान (महान जनविद्रोह) के नारे से गूंज उठा है.यह वही धरती है जिसने बिरसा मुंडा जैसे महान नायक को जन्म दिया था ,जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ी थी. आज, उसी धरती पर फिर लाखों आदिवासी पुरुष, महिलाएं और युवा सड़कों पर उतर आए हैं — अपने संवैधानिक अधिकारों, पहचान और अस्तित्व की रक्षा के लिये.
सोशल मीडिया पर वायरल हो रही एक तस्वीर को कई लोगों ने अमेरिका के No King आंदोलन से जोड़ा, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता हंसराज मीणा ने स्पष्ट किया कि यह झारखंड की ऐतिहासिक ,उलगुलान रैली की तस्वीर है. यह रैली सिर्फ़ एक विरोध नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता का प्रतीकात्मक विस्फोट बन चुकी है.
आंदोलन की पृष्ठभूमि
झारखंड के मूल आदिवासी समुदायों में भारी आक्रोश है.कारण है — बीजेपी और आरएसएस पर लगाए जा रहे आरोप कि वे एक गैर-आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग में शामिल कराने की कोशिश कर रहे हैं.
आदिवासी नेताओं और कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह कदम संविधान की मूल भावना के खिलाफ़ है.भारत का संविधान उन समुदायों को विशेष संरक्षण देता है जो सदियों से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से वंचित रहा हैं.ऐसे में किसी ऐसे समूह को एसटी श्रेणी में लाना जो ऐतिहासिक रूप से आदिवासी नहीं है, आरक्षण की आत्मा पर प्रहार माना जा रहा है.
हंसराज मीणा का बयान
सामाजिक कार्यकर्ता हंसराज मीणा ने अपने आधिकारिक X (Twitter) पोस्ट में लिखा है कि,
यह तस्वीर अमेरिका के No King आंदोलन की नहीं, बल्कि झारखंड की ऐतिहासिक ‘उलगुलान रैली’ की है. जहां लाखों आदिवासी महिलाएं, पुरुष और युवा अपने संवैधानिक हक़ और पहचान की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरे।.
उन्होंने कहा कि यह सिर्फ़ झारखंड की नहीं, बल्कि पूरे भारत के आदिवासियों की आवाज़ है.हंसराज मीणा ने साफ़ संदेश दिया कि,
हमारी पहचान कोई राजनीतिक सौदेबाज़ी नहीं है.
एसटी वर्ग में किसी गैर-आदिवासी को शामिल करना हमारे अधिकारों पर कुठाराघात है.
यह लड़ाई किसी पार्टी या व्यक्ति की नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता की है.
आदिवासी समाज की भावनाएं
झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और असम सहित पूरे देश के आदिवासी समुदाय इस मुद्दे पर एकजुट दिख रहे हैं.उनका मानना है कि यह संघर्ष केवल आरक्षण या पहचान का नहीं, बल्कि अस्तित्व का है.
आदिवासियों का इतिहास संघर्षों से भरा रहा है — भूमि, जंगल, जल और संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने सदियों से लड़ाई लड़ी है. अब जब संविधान ने उन्हें कुछ अधिकार दिए हैं, तो वे किसी भी कीमत पर अपनी पहचान को कमजोर नहीं होने देना चाहते.
राजनीतिक हलचल
इस रैली के बाद झारखंड की राजनीति में भी भूचाल आ गया है.विपक्षी दलों ने इसे,आदिवासियों की अस्मिता पर हमला बताया है, जबकि सत्ताधारी दल ने सरकार से स्पष्ट जवाब मांगने की बात कही है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि झारखंड और आसपास के राज्यों में आदिवासी वोट बैंक बहुत प्रभावशाली है. अगर आदिवासी समाज इस तरह संगठित होकर विरोध करता रहा, तो इसका असर विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों तक दिख सकता है.
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संवैधानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजातियों की सूची में संशोधन केवल संसद द्वारा किया जा सकता है. यह कोई प्रशासनिक या राजनीतिक निर्णय नहीं, बल्कि एक कानूनी प्रक्रिया है जिसमें राज्यों की अनुशंसा और केंद्र की सहमति आवश्यक होती है.
इसलिए बिना वैधानिक प्रक्रिया के किसी नए समुदाय को एसटी श्रेणी में शामिल करना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि आदिवासी समाज में भारी सामाजिक असंतुलन भी पैदा कर सकता है.
उलगुलान का नया अर्थ
उलगुलान का अर्थ है — महान जनविद्रोह, बिरसा मुंडा ने इस शब्द को ब्रिटिश काल में नया जीवन दिया था. आज झारखंड की सड़कों पर यह शब्द फिर से गूंज रहा है, लेकिन इस बार यह विद्रोह किसी विदेशी शासन के खिलाफ़ नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक अन्याय के खिलाफ़ है.
यह आंदोलन साबित कर रहा है कि आदिवासी समाज अब केवल वोट बैंक नहीं, बल्कि एक चेतन राजनीतिक शक्ति है, जो अपने अधिकारों की रक्षा खुद कर सकती है.
निष्कर्ष
झारखंड की उलगुलान रैली ने देशभर में एक नई बहस को जन्म दिया है — क्या राजनीतिक लाभ के लिए संविधान की सीमाओं को तोड़ा जा सकता है?
आदिवासी समाज का यह संदेश साफ़ है
हमारे अधिकारों पर हमला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.
यह संघर्ष किसी एक राज्य का नहीं, बल्कि पूरे भारत के आदिवासियों की अस्मिता और अस्तित्व का सवाल है.उलगुलान की यह पुकार अब एक जनज्वार बन चुकी है, जो देश के हर कोने में फैल रही है.

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