“लालू युग की MY समीकरण और सामाजिक क्रांति से नीतीश कुमार और लव-कुश समीकरण” तक बिहार की राजनीति कितनी बदली है ?
तीसरा पक्ष डेक्स : बिहार के राजनीति, सामाजिक संरचना और आर्थिक गतिशीलता में जाति का इतना गहरा प्रभाव है कि इसे बिहार के सियासत का मूल तत्व कहा जा सकता है,क्योकि यह कहना गलत नहीं होगा कि बिहार की राजनीती धर्म और जातिवाद के बीच में ही घूमता रहता है.हालांकि, बिहार,भारत का एक ऐसा राज्य है जो अपने ऐतिहासिक महत्व और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है, फिर भी यह लंबे समय से जातिवाद के जटिल जंजीरों में जकड़ा हुआ है. यह एक ऐसा सवाल है जो न केवल बिहार के राजनीतिक गतिशीलता को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यह भी समझना जरुरी है कि क्या वाकई में समय के साथ इस जटिल सामाजिक संरचना में कोई बदलाव आया है या नहीं. इस लेख में, हम बिहार के सियासत में जातिवाद के इतिहास और वर्तमान स्थिति के साथ ही भविष्य के संभावनाओं का गहन विश्लेषण करेंगे. तो आइए आगे जानते हैं कि “जातिवाद के जंजीर में जकड़ा बिहार के सियासत में कितना बदलाव आया है ?
जातिवाद का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
बिहार में जाति का उद्भव और प्रभाव : भारत में जाति व्यवस्था प्राचीन काल से चला आ रहा हैं, और बिहार राज्य भी इससे अछूता नहीं है. बिहार की बात करे तो वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक, बिहार के सामाजिक संरचना में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे वर्णों का बहुत प्रभाव रहा है. हालांकि, समय के साथ यह व्यवस्था और भी जटिल होता चला गया. जिसमें सैकड़ों उप-जातियाँ और समुदाय सामने उभर के आया. बिहार में यादव, कुर्मी, कोइरी, पासवान,रविदास, मुसहर और भी अन्य जातियाँ सामाजिक और राजनीतिक संरचना का अभिन्न हिस्सा बन गया है.
आजादी के बाद, जब लोकतांत्रिक व्यवस्था का जन्म हुआ तब बिहार में जाति का प्रभाव और भी गहरा हुआ. ग्रामीण क्षेत्रों में ऊँची जातियों का दबदबा था, और दलित व पिछड़ी जातियाँ के लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से बुरी तरह से शोषित थे. अब इस दौर में, वोट बैंक के अवधारणा ने जाति को राजनीतिक का बहुत बड़ा हथियार बना दिया है.
लालू युग और सामाजिक क्रांति

1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के शासन काल में बिहार के सियासत में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला. लालू यादव ने ‘M-Y‘ (मुस्लिम-यादव) समीकरण को मजबूत करते हुये उन्होंने पिछड़ी जातियों और दलितों को भी एकजुट करने का काम किया. उनके नीतियों ने सामाजिक न्याय को केंद्र में रखा, जिसके कारण ही पिछड़े वर्गों में भी राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है. आज के इस दौर को बिहार में सामाजिक क्रांति के रूप में देखा जाता है, क्योंकि पहली बार दलित और पिछड़ी जातियों के लोगो ने अपनी आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुँचाया.
लालू यादव के शासनकाल में ऊँची जातियाँ हाशिए पर चला गया और यादव, कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों का प्रभाव बढ़ता गया. हालांकि, इस दौर में ‘जंगलराज’ का आलोचना भी किया गया जिसमें भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था की कमी जैसे मुद्दे उभरे. फिर भी, लालू यादव ने जातिवाद के जंजीर को तोड़ने के दिशा में एक शुरुआत किये लेकिन यह शुरुआत पूरी तरह सफल नहीं रहा.

वर्तमान परिदृश्य: नीतीश कुमार और लव-कुश समीकरण
नीतीश का उदय और जातीय गणित : 2005 में जब नीतीश कुमार सत्ता में आये तो बिहार के सियासत में एक नया अध्याय शुरू हुआ. नीतीश कुमार ने ‘लव-कुश’ (कुर्मी-कोइरी) समीकरण को आधार बनाकर बिहार की सत्ता हासिल किया. उन्होंने विकास और सुशासन के नीतियों का अपना केंद्र तो बनाया, लेकिन जातीय समीकरणों को उन्होंने नजरअंदाज नहीं किया. नीतीश कुमार ने महादलित श्रेणी बनाकर दलितों के एक बड़े वर्ग को विशेष सुविधाएँ दिया.जिससे उनके राजनीतिक पकड़ और मजबूत हो गया.
नीतीश का शासनकाल बिहार के लिए एक परिवर्तनकारी का शासन काल रहा. सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में काफी सुधार भी हुआ, लेकिन जाति का प्रभाव में कोई कमी देखने को नहीं मिला. हर नीति, हर नियुक्ति और हर चुनावी रणनीति में जातीय गणित अच्छे तरीके से ख्याल रखा गया. उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो नीतीश कुमार ने सवर्ण सेल का गठन कर के ऊँची जातियों को भी अपने साथ जोड़ लिया ताकि कोई भी वर्ग नाराज न हो सके.

तेजस्वी यादव और नई पीढ़ी
लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने बिहार के सियासत में एक नया रंग जोड़ दिया है. तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी और महंगाई जैसे आर्थिक मुद्दों को उठाकर जाति से परे जाने की कोशिश किया है.उसने अपनी रणनीति में युवा वर्ग और नई पीढ़ी को जोड़ने पर अधिक जोर दिया है. हालांकि, राजद का मूल ताकत अभी भी ‘एम-वाई’ समीकरण ही माना जाता है. तेजस्वी का यह कोशिश है की जाति के बजाय विकास और आर्थिक मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दिया जाये. इससे बिहार के सियासत में अभी भी बदलाव की एक उम्मीद जगाती नजरआती है.
बीजेपी और सवर्ण-ओबीसी गठजोड़

भाजपा बिहार में नीतीश के साथ गठबंधन कर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी बनाया है.भाजपा ने सवर्ण और कुछ ओबीसी जातियों को अपने साथ मिलाया है लेकिन उनके राजनीति में भी जातीय समीकरण का अहम भूमिका रहा है.. सम्राट चौधरी बीजेपी को बिहार में एक नया पहचान दिया है.लेकिन यह भी एक जातीय गणित का ही हिस्सा था.
क्या वाकई बदलाव हुआ है या जातिवाद के जकड़न अभी भी मजबूत है ?
बिहार के सियासत में बदलाव के बात करते है तो कुछ हद तक प्रगति देखने को मिलता है. पहले जहाँ ऊँची जातियाँ के लोग सत्ता पर काबिज थे ,वहीं अब 1990 से पिछड़ी और दलित जातियों का भी भागीदारी बहुत हद तक बढ़ी है. लालू, नीतीश और तेजस्वी जैसे नेताओं ने सामाजिक न्याय के अवधारणा को केंद्र रखकर इसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया है. बिहार में Caste Survey (कास्ट सर्वे) के नाम पर जाति जनगणना उसी का परिणाम है, जिससे वंचित वर्गों में भी आत्मविश्वास बढ़ा है. लेकिन, यह कहना कि बिहार में जातिवाद के जंजीर टूट गया है, यह गलत होगा.
कोई भी राजनीतिक दल, चाहे वह आरजेडी, जेडीयू, बीजेपी या कांग्रेस हो,सभी राजनितिक दल अपने अपने रणनीति में जातीय समीकरणों को ही प्राथमिकता देती है. चाहे मंत्रिमंडल का गठन हो या टिकट वितरण , हर कदम पर जाति समीकरण का ख्याल रखा जाता है. हाल के वर्षों में हुए जाति आधारित जनगणना ने भी इस तथ्य को स्पस्ट रूप से रेखांकित किया कि बिहार जैसे राज्य में जाति अभी भी सामाजिक और राजनीतिक पहचान का आधार बना हुआ है.
विकास बनाम जाति
नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने विकास को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया है , लेकिन चुनावी मैदान में जाति का समीकरण विकास के मुद्दे पर हमेशा भारी पड़ता है. उदाहरण के लिए, 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने विकास का बात किया था,लेकिन उसने महादलित और लव-कुश समीकरण को भी भुनाया.इसी तरह, तेजस्वी यादव ने भी बेरोजगारी पर जोर दिया, लेकिन उनकी पार्टी राजद की जीत अभी भी ‘एम-वाई’ गठजोड़ पर निर्भर रहा है.
सामाजिक बदलाव की चुनौतियाँ
जातिवाद के जंजीर को तोड़ने के लिए शिक्षा, आर्थिक समानता और सामाजिक जागरूकता बेहद जरूरी है. बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में काफी सुधार हुआ है, लेकिन निजी स्कूलों में मनमानी और आरटीई के नियमों का उल्लंघन अभी भी एक बहुत बड़ी समस्या बना हुआ है. आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ, बिहार अभी भी देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है, जिसके बजह से जातीय एकजुटता और वोट बैंक के राजनीति को बढ़ावा मिलता है.
भविष्य की संभावनाएँ

प्रशांत किशोर और नई सियासत
प्रशांत किशोर जैसा राजनीतिक रणनीतिकार बिहार में एक नई तरह के सियासत लाने की कोशिश में लगे हुये हैं. उनके पार्टी ‘जन सुराज’ मुहिम जाति से परे विकास और सुशासन पर केंद्रित है. हालांकि, यह देखना अभी बाकी है कि क्या वह बिहार की गहरी जड़ों वाली जातीय राजनीति को चुनौती दे पाएँगे या नहीं.
युवा और बदलती सोच
बिहार के युवा पीढ़ी में बदलाव के लहर दिख रहा है. सोशल मीडिया और शिक्षा के प्रचार प्रसार होने से युवाओं को जाति से परे सोचने के लिए प्रेरित किया है. तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर जैसे नेताओ ने इस बदलती सोच को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं.लेकिन, ग्रामीण क्षेत्रो में जाति की जकड़न अभी भी बहुत मजबूत है, जो इस बदलाव को धीमा कर रहा है.इस बदलाव को रोकने में बाधक बना हुआ है.
नीति और सुधार
जातिवाद को कम करना है तो उसके लिए नीतिगत सुधार बहुत जरूरी हैं. शिक्षा और रोजगार के अवसरों को अधिक से अधिक बढ़ाकर, बिहार सरकार जातीय आधारित गोलबंदी को कम कर सकता है.साथ ही सामाजिक जागरूकता अभियानों के जरिए लोगों को जाति से परे एकजुट करने का जरूरत है.
निष्कर्ष
बिहार के सियासत में जातिवाद के जंजीर अभी भी मजबूत है, लेकिन इसमें अब बदलाव के संकेत भी दिखाई देरहा है. लालू प्रसाद यादव ने सामाजिक क्रांति का शुरुआत किया , नीतीश कुमार ने सुशासन को जोड़ा, और तेजस्वी यादव आर्थिक मुद्दों को उठा रहा है.फिर भी, हर राजनीतिक दल और नेता को जातीय समीकरणों का सहारा लेना ही पड़ता है.प्रशांत किशोर जैसे नए चेहरे और युवा पीढ़ी के बदलती सोच भविष्य में इस जंजीर को तोड़ने का उम्मीद जगाती है पर आगे कितना यह सफल रहता है यह भी देखने वाली बात होंगी.
बिहार को जातिवाद के जकड़न से मुक्त करने के लिए शिक्षा, आर्थिक समृद्धि और सामाजिक जागरूकता पर बिसेष तौर से ध्यान देना होगा. केवल तभी बिहार के सियासत में सच्चा बदलाव संभव होगा, जहाँ विकास और समानता जाति से ऊपर होगा. यह बदलाव आसान नहीं होगा, लेकिन बिहार के जनता के जागरूकता और नेताओं के इच्छाशक्ति दोनों मिलकर इसको मुमकिन बना सकता है.

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