आपत्तियाँ दर्ज होने के बावजूद रिपोर्ट में शून्य क्यों दिखा रहा है आयोग?
तीसरा पक्ष ब्यूरो पटना, 21 अगस्त :बिहार में मतदाता सूची से 65 लाख लोगों को हटाए जाने के मामले पर माले (CPIML) ने निर्वाचन आयोग की प्रक्रिया और पारदर्शिता को कठघरे में खड़ा किया है.माले के राज्य सचिव कुणाल ने आयोग की 21 अगस्त को जारी बुलेटिन पर कड़ा ऐतराज जताते हुए कहा है कि इसमें विपक्षी दलों द्वारा कोई आपत्ति न दर्ज कराने का दावा ,तथ्यहीन और भ्रमित करने वाला है.

आयोग की प्रक्रिया ही अस्पष्ट रही
कुणाल ने कहा कि आयोग ने आपत्तियाँ दर्ज कराने की प्रक्रिया को इतना जटिल और भ्रमपूर्ण बना दिया कि कई जगह पार्टी कार्यकर्ता और बीएलए (बूथ लेवल एजेंट) निर्धारित प्रोफार्मा में आपत्ति दाखिल नहीं कर सके. उन्होंने कहा कि पार्टी ने कई स्तरों पर विरोध और आपत्ति दर्ज कराया गया था लेकिन आयोग ने उन्हें सिर्फ इसलिए दरकिनार कर दिया क्योंकि वे तय प्रोफार्मा में नहीं था.
ठोस दस्तावेज और फिर भी, शून्य
माले ने यह भी खुलासा किया कि 20 अगस्त 2025 को पार्टी के अधिकृत बीएलए श्री विश्वकर्मा पासवान (194 – आरा विधानसभा, बूथ नंबर – 100) ने दो मतदाताओं, मिंटू पासवान (एपिक नंबर: RGX0701235) और मुन्ना पासवान (एपिक नंबर: RGX2861375) की ओर से शपथ-पत्र समेत फॉर्म-6 स्थानीय बीएलओ को सौंपा.इसकी रसीद भी पार्टी के पास उपलब्ध है. बावजूद इसके अगले ही दिन जारी बुलेटिन में माले द्वारा दर्ज आपत्तियों की संख्या को ,शून्य दिखाया गया.
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मिंटू पासवान स्वयं सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचे
गौरतलब है कि जिन मतदाताओं की ओर से आपत्ति दर्ज किया गया, उनमें शामिल मिंटू पासवान स्वयं इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे और फिर राज्य चुनाव कार्यालय में भी पेश भी हुए थे. उन्हें भरोसा दिया गया था कि भोजपुर ज़िले में उनकी आपत्ति दर्ज किया जायेगा. लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ है.
छवि बिगाड़ने की कोशिश?
राज्य सचिव कुणाल ने इस स्थिति को,गंभीर अनियमितता बताते हुए कहा कि इससे न सिर्फ लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं.बल्कि विपक्षी दलों की छवि भी धूमिल करने की कोशिश किया जा रहा है . उन्होंने निर्वाचन आयोग को लिखे पत्र में मांग किया है कि यह स्पष्ट किया जाए कि जब निर्धारित फॉर्म और शपथ पत्र सौंपे जा चुका हैं. तो उन्हें, शून्य क्यों दर्शाया गया.
निष्पक्षता पर संकट
यह पूरा मामला सिर्फ तकनीकी चूक नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ जैसा प्रतीत होता है.जब लाखों मतदाताओं को सूची से बाहर किया जा रहा हो.और राजनीतिक दलों की आपत्तियों को नजरअंदाज किया जाए. तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता कितनी बरकरार है?
अब सवाल यह है.
क्या आयोग इस पर पारदर्शी जवाब देगा या फिर इसे भी प्रोफार्मा की तकनीकी भूल बताकर नजरअंदाज कर दिया जाएगा?
यह रिपोर्ट लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर उठ रहे गंभीर प्रश्नों की ओर ध्यान दिलाता है.

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