मानसून सत्र: मायावती ने खोली सरकार और विपक्ष की पोल

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kmSudha

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मानसून सत्र: मायावती ने खोली सरकार और विपक्ष की पोल

कहा,राजनीतिक कटुता छोड़ जनहित में हो सत्र की बहस

तीसरा पक्ष ब्यूरो,लखनऊ – बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने सोमवार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X (पूर्व में ट्विटर) के ज़रिए उत्तर प्रदेश विधानसभा और संसद के मानसून सत्र को लेकर गंभीर चिंता जताई है. उन्होंने कहा कि यह सत्र केवल औपचारिकता निभाने तक सीमित न रह जाए, बल्कि इसे प्रदेश और जनहित के मुद्दों पर सार्थक रूप से उपयोग किया जाना चाहिये.

मायावती ने कहा कि सरकार और विपक्ष दोनों को अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ, द्वेष और कटुता को छोड़कर सत्र को सफल बनाने के लिए सहयोग करना होगा. उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि संसद का चल रहा मानसून सत्र भी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं चल रहा है. जिससे जनता से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर चर्चा नहीं हो पा रही है.

उन्होंने अमेरिका द्वारा भारतीय व्यापार पर लगाए गए भारी टैरिफ का मुद्दा उठाते हुए कहा कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.मायावती ने संसद से अपील किया है कि इस विषय पर गंभीर चिंतन-मनन हो, क्योंकि यह सीधे तौर पर देश के ‘अच्छे दिनों’ और भविष्य से जुड़ा मसला है.बसपा सुप्रीमो ने मतदाता सूची, ईवीएम और चुनाव से जुड़ी पारदर्शिता के मुद्दों पर भी चिंता जताई है.उन्होंने कहा कि इन सभी मामलों से जुड़े संदेहों को समय रहते स्पष्ट किया जाना चाहिये ताकि लोकतंत्र में जनता का भरोसा बना रहे.आइए, जानते हैं इस पूरे बयान के प्रमुख बिंदुओं को विस्तार से

क्या लोकतंत्र अब केवल औपचारिकता बनकर रह गया है?

बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र की शुरुआत पर जो सवाल उठाये हैं.वो सत्ता की चूलें हिलाने वाले हैं. उन्होंने चेताया कि यह सत्र अगर सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गया तो यह प्रदेश के करोड़ों नागरिकों के विश्वास से खुला मज़ाक होगा.

उनका साफ कहना है कि – राजनीतिक दल अपनी लड़ाइयों और नफरत को छोड़ें और जनता के मुद्दों पर गंभीरता से चर्चा करें.जब देश के किसान, नौजवान, व्यापारी सब संकट में हैं.तब सत्र में शोरगुल और बहिर्गमन नहीं, समाधान की ज़रूरत है.

संसद का हाल भी बेहाल: जन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा लोकतंत्र का मंदिर

मायावती यहीं नहीं रुकीं.उन्होंने साफ कहा कि दिल्ली में चल रहा मानसून सत्र भी जनता की उम्मीदों को धोखा दे रहा है. संसद में हो रहे लगातार हंगामों और मुद्दों से भटकती बहसों पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा कि देश जल रहा है.और नेता वाद-विवाद में उलझे हैं.
यह वक्त सवाल पूछने का है –

जब देश आर्थिक मोर्चे पर जूझ रहा है, तो संसद में मौन क्यों है?

क्या लोकतंत्र अब सिर्फ सत्ता और विपक्ष की छींटाकशी तक सीमित रह गया है?

अमेरिका के टैरिफ से कांपती भारतीय अर्थव्यवस्था: क्यों चुप है सरकार?

मायावती ने अमेरिकी टैरिफ के असर को भी ज़ोरदार ढंग से उठाया है. उन्होंने स्पष्ट कहा कि अमेरिका द्वारा भारतीय व्यापार पर लगाया गया भारी शुल्क से देश की अर्थव्यवस्था पर बड़ा संकट मंडरा रहा है. लेकिन केंद्र सरकार इस पर आंख मूंदे बैठी है.

क्या सरकार को इस बात का अहसास है कि,

रोजगार, निर्यात और निवेश पर इसका गहरा असर पड़ सकता है?

क्या अच्छे दिन का सपना टैरिफ के तले दब जाएगा?

यह मामला सिर्फ अर्थव्यवस्था का नहीं है भारत के आर्थिक भविष्य का है. और इस पर संसद में बहस होना ज़रूरी है – न कि सत्र को हंगामों की भेंट चढ़ा देना.

ईवीएम और मतदाता सूची पर उठते सवाल: क्या लोकतंत्र की नींव हिल रही है?

देशभर में ईवीएम की पारदर्शिता, मतदाता सूची में गड़बड़ी और चुनाव प्रणाली की निष्पक्षता पर उठते सवालों को भी मायावती ने ज़िम्मेदारी से उठाया है उनका कहना है कि इन शंकाओं का जल्द समाधान जरूरी है.वरना जनता का लोकतंत्र पर से भरोसा उठ जायेगा.

क्या यह उचित नहीं कि चुनाव आयोग और सरकार—हर सवाल का पारदर्शी जवाब दें?

जनता को यह भरोसा दिलाएं कि उनका वोट सुरक्षित है और उनका भविष्य भी?

अब चुप नहीं बैठेगा देश: जनता चाहती है जवाब, बहस नहीं बहाना

मायावती के बयान सिर्फ विपक्षी कटाक्ष नहीं हैं ,यह देश की उस जनता की आवाज़ हैं. जो अब और चुप नहीं बैठना चाहती है. अब देश वो नहीं जो सिर्फ वादों से बहल जाये.

देश अब जानना चाहता है कि,

कब तक संसद और विधानसभा सिर्फ राजनीतिक अखाड़ा बनकर रहेंगे?

क्या आम आदमी के मुद्दे अब नेताओं की प्राथमिकता नहीं रहे?

कब होगा बेरोज़गारी, महंगाई, सुरक्षा और न्याय पर खुला विमर्श?

निष्कर्ष: सरकार और विपक्ष – अब बहाने नहीं, काम चाहिए!

मायावती ने सटीक रूप से इस बात को रेखांकित किया है कि अब समय आ गया है जब सत्ता और विपक्ष दोनों अपने-अपने एजेंडे छोड़कर राष्ट्रहित में एकजुट हों.
सवाल उठ चुका है और अब जनता को जवाब चाहिये.
न सिर्फ शब्दों में बल्कि संसद और विधानसभाओं में ठोस फैसलों में.

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