तीसरा पक्ष डेस्क:बिरसा मुंडा, जिन्हें “धरती आबा” (पृथ्वी के पिता) के नाम से जाना जाता है, भारतीय इतिहास में आदिवासी स्वाभिमान और स्वतंत्रता संग्राम के एक महान प्रतीक हैं. उनका जीवन और बलिदान न केवल झारखंड के मुंडा समुदाय के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है. बिरसा मुंडा बलिदान दिवस, जो हर साल 9 जून को मनाया जाता है, उनके साहस, नेतृत्व और सामाजिक सुधार के प्रयासों को याद करने का अवसर है. यह दिन हमें उनके द्वारा शुरू किए गए “उलगुलान” (महान विद्रोह) और आदिवासी अधिकारों के लिए उनके संघर्ष की याद दिलाता है.
बिरसा मुंडा का प्रारंभिक जीवन
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड (तत्कालीन बिहार) के छोटानागपुर क्षेत्र में उलिहातु गांव में एक मुंडा आदिवासी परिवार में हुआ था.उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी हटु एक साधारण किसान थे. बिरसा का बचपन प्रकृति के बीच और आदिवासी संस्कृति में बीता.उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों में प्राप्त की और बाद में जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ाई की. इस दौरान, उन्होंने ईसाई धर्म को अपनाया और “बिरसा डेविड” के नाम से जाने गए, लेकिन बाद में उन्होंने अपनी आदिवासी जड़ों को फिर से अपनाया.

बचपन से ही बिरसा में सामाजिक अन्याय के खिलाफ जागरूकता थी. ब्रिटिश शासन और जमींदारों द्वारा आदिवासियों के शोषण को देखकर उनके मन में विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी.उनकी बुद्धिमत्ता, नेतृत्व क्षमता और समाज के प्रति समर्पण ने उन्हें कम उम्र में ही एक प्रेरक व्यक्तित्व बना दिया.
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ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह
19वीं सदी के अंत में, ब्रिटिश शासन ने आदिवासियों की जमीन और संसाधनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया.जमींदारी प्रथा और वन कानूनों ने आदिवासियों को उनकी अपनी जमीन से बेदखल कर दिया.बिरसा मुंडा ने इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और 1895 में “उलगुलान” (महान विद्रोह) की शुरुआत किये.उनका नारा था, “अबुआ दिशोम रे अबुआ राज” (हमारा देश, हमारा राज), जो आदिवासियों को उनके अधिकारों के लिए एकजुट करने का प्रतीक बना.

बिरसा ने अपने अनुयायियों को संगठित किया और ब्रिटिश अधिकारियों, जमींदारों और मिशनरियों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई. उन्होंने आदिवासियों को हथियार उठाने और अपनी जमीन व संस्कृति की रक्षा के लिए प्रेरित किया.1899-1900 के बीच, उनका विद्रोह अपने चरम पर था, जिसने ब्रिटिश शासन को हिला दिया. हालांकि, उनकी सेना के पास आधुनिक हथियारों की कमी थी, लेकिन उनके साहस और नेतृत्व ने ब्रिटिश हुकूमत को परेशान कर दिया.
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समाज सुधारक के रूप में
बिरसा मुंडा केवल एक स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे.उन्होंने मुंडा समुदाय में फैली कुरीतियों, जैसे अंधविश्वास, शराबखोरी और सामाजिक असमानता, के खिलाफ आवाज उठाई.उन्होंने “बिरसाइट” धर्म की स्थापना की, जो आदिवासी संस्कृति और आध्यात्मिकता पर आधारित था. इस धर्म के माध्यम से उन्होंने आदिवासियों को एकजुट किया और उन्हें अपनी सांस्कृतिक पहचान पर गर्व करना सिखाया. बिरसा ने प्रकृति पूजा को बढ़ावा दिया और आदिवासियों को आत्मनिर्भरता की ओर प्रेरित किया.

उनके सुधारों ने आदिवासी समाज में शिक्षा, स्वच्छता और सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया.उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और सामुदायिक एकता पर भी जोर दिया. बिरसा का यह दृष्टिकोण उन्हें एक दूरदर्शी नेता बनाता है, जिन्होंने न केवल आजादी की लड़ाई लड़ी, बल्कि सामाजिक उत्थान के लिए भी काम किया.
गिरफ्तारी और बलिदान
ब्रिटिश शासन ने बिरसा के बढ़ते प्रभाव को कुचलने के लिए कड़े कदम उठाए.3 फरवरी 1900 को, बिरसा को उनके कुछ अनुयायियों के साथ जामकोपाई जंगल से गिरफ्तार कर लिया गया.उन्हें रांची जेल में कैद किया गया, जहां उनकी तबीयत बिगड़ने लगी.9 जून 1900 को, मात्र 25 वर्ष की आयु में, बिरसा मुंडा की रहस्यमयी परिस्थितियों में जेल में मृत्यु हो गई .कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उन्हें धीमा जहर दिया गया, हालांकि इसकी कोई ठोस पुष्टि नहीं है.
उनकी मृत्यु ने आदिवासी समुदाय को गहरा आघात पहुंचाया, लेकिन उनके विचार और संघर्ष की भावना आज भी जीवित है. बिरसा का बलिदान स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बना.
आज का महत्व
बिरसा मुंडा बलिदान दिवस आज भी आदिवासी समुदायों और पूरे भारत में बड़े सम्मान के साथ मनाया जाता है.यह दिन हमें उनके साहस, आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय के लिए उनके संघर्ष को याद करने का अवसर देता है. झारखंड में इस दिन को राजकीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है, और विभिन्न कार्यक्रमों, रैलियों और सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से बिरसा के योगदान को याद किया जाता है.
आज के समय में, बिरसा मुंडा का जीवन आदिवासी अधिकारों, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समानता के लिए प्रेरणा देता है. उनकी लड़ाई हमें यह सिखाती है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना और अपनी पहचान को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है. भारत सरकार ने उनके सम्मान में कई योजनाएं और स्मारक स्थापित किए हैं, जैसे रांची में बिरसा मुंडा स्मारक और बिरसा कृषि विश्वविद्यालय.
निष्कर्ष
बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपने छोटे से जीवन में असाधारण कार्य किए.उनका “उलगुलान” न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह था, बल्कि आदिवासी समाज के आत्मसम्मान और पहचान को पुनर्जनन का आंदोलन भी था. बिरसा मुंडा बलिदान दिवस हमें उनके बलिदान को याद करने और उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने की प्रेरणा देता है.आज के भारत में, जहां सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दे अभी भी प्रासंगिक हैं, बिरसा का जीवन हमें साहस, एकता और न्याय के लिए लड़ने की प्रेरणा देता है.

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