चुनाव आयोग की भूमिका पर गंभीर बहस !
तीसरा पक्ष डेस्क, पटना: बिहार में इस समय एक चुपचाप शुरू की गई चुनावी प्रक्रिया ने लोकतंत्र की बुनियाद पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. विशेष गहन पुनरीक्षण’ (Special Intensive Revision) नामक इस प्रक्रिया के तहत अब मतदाता सूची को इस तरह से खंगाला जा रहा है, जैसे हर नागरिक को पहले दोषी मान लिया गया हो — जब तक वह खुद को निर्दोष साबित न कर दे.
क्या हो रहा है?
चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची को अद्यतन करने के लिए जो प्रक्रिया शुरू की है, उसमें लाखों लोगों से ऐसे दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं जो उनके पास नहीं हैं — जैसे माता-पिता की जन्मतिथि के प्रमाण, जन्म प्रमाण पत्र, नागरिकता से जुड़े कागज़, और दशकों पुराने रिकॉर्ड.आयोग इसे “नियमित” प्रक्रिया बताने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ पिछली बार 22 साल पहले हुआ था. यानी यह कोई हर साल होने वाला अपडेट नहीं बल्कि एक असामान्य और बेहद संवेदनशील कदम है.
सवाल ये है: नागरिकता का प्रमाण क्यों?
भारत में वोट देने का अधिकार सिर्फ नागरिकों को है — यह सभी जानते हैं. लेकिन अब तक इस देश में किसी मतदाता से कभी उसकी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज़ नहीं मांगे गए. अगर किसी व्यक्ति पर संदेह हो, तो उसे राज्य को साबित करना होता है — न कि हर आम आदमी को अपनी भारतीयता का सबूत पेश करना पड़ता है.
यह बदलाव अचानक क्यों? और इतनी चुपचाप क्यों?
ना किसी राजनीतिक दल से सलाह, ना किसी जनचर्चा का आयोजन, ना ही किसी सार्वजनिक नोटिस के ज़रिए पारदर्शिता — क्या यह प्रक्रिया लोगों को तैयार किए बिना ही लागू की जा रही है, ताकि बड़ी संख्या में लोगों को लोकतंत्र से चुपचाप बाहर किया जा सके?
असली चोट किन पर?
इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा असर उन लोगों पर होगा जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं. और यह कोई छोटी संख्या नहीं है. चुनाव आयोग का कहना है कि 4.96 करोड़ वोटर प्रभावित नहीं होंगे.लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि लगभग 3 करोड़ मतदाता — जिनमें बड़ी संख्या में दलित, पिछड़े, मजदूर, महिलाएं, भूमिहीन किसान और हाशिये पर खड़े समुदाय हैं — वो खतरे में हैं.
इनमें से कई लोगों का जन्म पंजीकरण कभी हुआ ही नहीं. सरकार की जिम्मेदारी रही है सार्वभौमिक जन्म-मृत्यु पंजीकरण सुनिश्चित करना, लेकिन विफलता का बोझ अब आम लोगों पर डाल दिया गया है.
प्रक्रिया से समस्या तक
मतदाता सूची को साफ़ करना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन इसका तरीका पारदर्शी, वैज्ञानिक और जनसहभागिता पर आधारित होना चाहिए.अभी जो हो रहा है, वह इसके ठीक उलट है —
न तो प्रक्रिया की स्पष्ट जानकारी दी गई
न ही दस्तावेज़ों की जरूरत को लेकर कोई लचीलापन दिखाया गया
और न ही यह सुनिश्चित किया गया कि किसी भी वास्तविक भारतीय नागरिक को उसके संवैधानिक अधिकार से वंचित न किया जाए.
चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल
क्या चुनाव आयोग अब मतदाताओं को अधिकार देने के बजाय उनसे अधिकार छीनने की भूमिका में आ गया है? यह वही संस्था है जिस पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की निष्पक्षता की ज़िम्मेदारी है. ऐसे में अगर उसके आदेश से करोड़ों लोगों का नाम मतदाता सूची से हट जाता है, तो यह सिर्फ तकनीकी भूल नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विश्वास का संकट होगा.
निष्कर्ष: यह सिर्फ संख्या का नहीं, लोकतंत्र के भविष्य का सवाल है
वोट मांगने में आगे, वोट देने में अड़चन क्यों? — यह सवाल आज बिहार से उठ रहा है, लेकिन कल देश के किसी भी हिस्से से उठ सकता है. लोकतंत्र की आत्मा यही है कि हर नागरिक को भागीदारी का अधिकार हो — बिना किसी भेदभाव या बाधा के.
इसलिए जरूरी है कि चुनाव आयोग इस प्रक्रिया को तुरंत पारदर्शी बनाए, गैरज़रूरी दस्तावेज को हटाए, और यह सुनिश्चित करे कि कोई भी नागरिक सिर्फ कागज़ों की कमी के चलते लोकतंत्र से बाहर न हो.
लोकतंत्र में भरोसा बनाए रखना, सिर्फ वोट डालने की आज़ादी से नहीं, बल्कि उस आज़ादी तक पहुँच को सुगम और न्यायपूर्ण बनाने से जुड़ा है.

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